लघुउद्योग

मधुमक्खी उत्पाद
मधुमक्खी उत्पाद

भूमिका

मधुमक्खियां अनेक उत्पाद जैसे शहद, मधुमक्खी का मोम, पराग, प्रापलिस, रॉयल जैली और विष उपलब्ध कराती हैं। छत्तों के विभिन्न उत्पादों के उत्पादन के लिए प्रौद्योगिकियां अब भारत में उपलब्ध हैं, तथापि इन्हें किसानों के खेतों में मानकीकृत करने की आवश्यकता है। इन उत्पादों का कार्यान्वयन तथा वाणिज्यीकरण आवश्यक है, ताकि हरियाणा राज्य में मधुमक्खी पालकों की आमदनी बढ़ सके।

शहद

शहद एक जैविक पदार्थ है तथा इसका भोजन तथा औषधियों के रूप में उपयोग होता है, अतः इसकी गुणवत्ता व साज-संभाल पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। शहद में मौजूद नमी अंश उसकी गुणवत्ता के बारे में निर्णय लेने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जिस शहद में 20 प्रतिशत से अधिक नमी होती है उसे पतला माना जाता है। शहद में नमी का अंश उसकी जलावशोषी प्रकृति के कारण बढ़ जाता है जिसके अंतर्गत शहद अपने आस-पास के वातावरण की नमी को सोख लेता है। यदि शहद में नमी का अंश 20 प्रतिशत से अधिक हो तो किण्वन होने और शहद के दाने बन जाने के कारण इसके खराब होने की अधिक संभावना रहती है। अनियंत्रित दशाओं जैसे प्रतिकूल मौसम संबंधी कारकों के अंतर्गत शहद के संकलन, भंडारण तथा साज-संभाल की वर्तमान विधि को ध्यान में रखते हुए शहद के ऐसे प्रसंस्करण की आवश्यकता है जिससे उसमें नमी का अंश कम रहे। इस दृष्टि से शहद के बहुमूल्य प्राकृतिक गुणों की सुरक्षा के लिए उसे पैक बंद करने पर अत्यधिक ध्यान देने की जरूरत है।

इसके अलावा शहद में पराग, धूल और हवा के बुलबुले होते हैं जिससे उसमें दाने पड़ जाते हैं (केलासीकरण होता है)। दाना पड़ने की इस क्रिया को शहद को 450 से. तक गर्म करके रोका जा सकता है क्योंकि इससे शहद में मौजूद रवे या दाने घुल जाते हैं। छानने से शहद से पराग, बाहरी अवांछित कण और मोम भी हट जाते हैं। किण्वन से बचने व यीस्ट को नष्ट करने के लिए शहद को क्रमशः 20 मिनट तक 650 से. पर, 10 मिनट तक 650 से. पर व 2.5 मिनट तक 700 से. पर गर्म किया जाना चाहिए। उचित तापमान नियंत्रण तथा शहद को गर्म करने का समय उसकी प्रसंस्करण क्रिया का सबसे महत्वपूर्ण कारक हैं। ज्यादा गर्म करने से शहद में एचएमएफ (हाइड्रोक्सिल- मेथाइलफरफ्यूरॉल) की मात्रा बढ़ जाती है जो वांछित नहीं है। उच्च तापमान से शहद के रंग व स्वाद भी प्रभावित होते हैं। शहद को पैक बंद करने के पूर्व ठंडा कर लिया जाता है, ताकि यह बिना किसी मिलावट के दीर्घावधि तक टिका रहे और उसमें दाने भी न पड़े। खाद्य श्रेणी के शहद को बोतल में बंद करके बिक्री के लिए उसे कोई ब्राण्ड नाम दिया जाना चाहिए। भंडारण की स्थितियां शहद में एचएमएफ के स्तर तथा उसके स्वाद में मुख्य भूमिका निभाती हैं। यदि शहद को उच्च तापमान (300 से. से अधिक) पर भंडारित किया जाता है तो उसमें एचएमएफ का स्तर 3-5 महीनों में ही 40 मि.ग्रा./कि.ग्रा. से अधिक हो जाता है। यह शहद अंतरराष्ट्रीय बाजार में स्वीकार नहीं किया जाता है, अतः इसे बिक्री से पहले उचित रूप में प्रसंस्कृत किया जाना चाहिए।

शहद का प्रसंस्करण

हरियाणा में मध्यम श्रेणी के चार प्रसंस्करण संयंत्र मुरथल (1), अम्बाला (1) और यमुनानगर (2) में व चार छोटे पैमाने के शहद प्रसंस्करण संयंत्र करनाल (1), सोनीपत (1), हिसार(1) तथा रोहतक (1) में हैं। हरियाणा कृषि उद्योग निगम (एचएआईसी) लिमिटेड एक पंजीकृत सोसायटी है जिसका अनुसंधान एवं विकास अथवा आरडी केन्द्र मुरथल, सोनीपत में है। इस केन्द्र में प्रतिदिन एक मीट्रिक टन शहद के प्रसंस्करण की क्षमता है। इसने शहद की बिक्री के लिए हैफेड (हरियाणा सरकार फेडरेशन) के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं जो इस केन्द्र द्वारा खरीदे गए व प्रसंस्कृत शहद को हरियाणा मधु’ के ब्राण्ड नाम से बाजार में बेचेगी। यह केन्द्र किसानों के शहद को भी 5/रु. प्रति कि.ग्रा. की दर से प्रसंस्कृत करता है लेकिन किसानों की प्रतिक्रिया बहुत उत्साहजनक नहीं है। मधुमक्खी पालक श्रेष्ठ गुणवत्ता वाला शहद उत्पन्न करते हैं लेकिन वे केवल कच्चा शहद ही बेचते हैं तथा अपने शहद को प्रसंस्कृत कराने के लिए आगे नहीं आ रहे हैं।

राज्य सरकार को अनुदानित दरों पर किसानों के शहद को प्रसंस्कृत करने की संभावना तलाश करनी चाहिए तथा राज्य में कार्य न करने वाले प्रसंस्करण संयंत्रों को पुनः उपयोग में लाने की दिशा में कदम उठाने चाहिए। इसके अलावा शहद प्रसंस्करण संबंधी नीति बनाए जाने की जरूरत है, तथा हरियाणा में नए प्रसंस्करण संयंत्र स्थापित किए जाने चाहिए।

शहद का परीक्षण, गुणवत्ता नियंत्रण, मानकीकरण तथा प्रमाणीकरण

सदियों से शहद का उपयोग प्राकृतिक मिठास एजेंट के रूप में किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त औषधियों, सौंदर्य प्रसाधनों तथा कॉनफेक्सनरी उद्योग में भी इसका व्यापक उपयोग होता है। उच्च पोषक तथा उच्च चिकित्सीय गुणों के कारण शहद की सदैव अधिक मांग बनी रहती है। शहद को अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचने के लिए उसका गुणवत्ता नियंत्रण व मानकीकरण बहुत जरूरी है। यूरोपीय यूनियन (ईयू) तथा कुछ अन्य देशों में निर्यात के लिए नाशकजीवों और कीटनाशी अपशिष्टों, आविषालु धातुओं के अपशिष्टों तथा एंटीबायोटिक्स अपशिष्टों के स्तर पर नियंत्रण रखना अति आवश्यक है।

एक सक्षम निर्यातक बनने के लिए भारतीय निर्यात प्राधिकारियों ने शहद की गुणवत्ता की निगरानी शुरू की है। गुणवत्ता संबंधी भौतिक–रासायनिक प्राचलों के अतिरिक्त शहद में आविषालु धातुओं, नाशकजीवनाशियों और एंटीबायोटिक्स के अपशिष्टों की उपस्थिति पर भी अधिक जोर दिया जा रहा है। एक बार जब शहद की गुणवत्ता स्थापित हो जाती है तो यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि उपभोक्ताओं को केवल श्रेष्ठ गुणवत्ता वाला शहद ही बेचा जाए। इसे ध्यान में रखते हुए हरियाणा में एक उच्च स्तर की आधुनिक शहद परीक्षण प्रयोगशाला स्थापित करने की जरूरत है।

शहद का भंडारण और बोतलबंदी

यदि शहद साफ हो और उसे किसी वायुरुद्ध पात्र में सीलबंद किया जाए तो लंबे समय तक भंडारित किया जा सकता है लेकिन यदि उसने जल सोख लिया हो तो वह जल्दी खराब होता है व किण्वित हो जाता है। शहद तैयार करने में यह बहुत महत्वपूर्ण चरण है। जरूरी है कि शहद प्रसंस्करण के सभी उपकरण तथा उसके भंडारण में प्रयुक्त होने वाली बोतलें पूरी तरह सूखी हों। भंडारण के पूर्व शहद को मलमल के कपड़े से छाना जाता है ताकि उसे मोम के अंश या कचरे को हटाया जा सके। यह बहुत आवश्यक है कि यह क्रिया स्वच्छतापूर्वक की जाए तथा शहद को वायु के सम्पर्क में न लाया जाए क्योंकि ऐसा होने पर उसमें नमी आ जाएगी और वह जल्दी खराब हो जाएगा। शहद को वायुरुद्ध, रंजनहीन पात्रों में भंडारित किया जाना चाहिए, ताकि उसमें नमी न आए तथा परिणामस्वरूप किण्वन न हो। प्रसंस्करण के पश्चात शहद को चौड़ी मुंह वाली कांच की बोतलों में रखकर बेचा जाना चाहिए।

शहद का लेबलीकरण/चीनीकरण तथा पैकेजिंग

शहद की बोतलों पर लेबल लगाना चाहिए जिसमें शहद के स्रोत (उदाहरण के लिए सूरजमुखी, मिश्रित पुष्पों, सरसों के शहद), जहां उत्पन्न किया गया है, उस राज्य व जिले का नाम, पात्र में मौजूद शहद का भार या मात्रा तथा मधुमक्खी पालक का नाम व पता दर्ज होना चाहिए। प्रत्येक पात्र पर ग्रेड निर्धारक चिहन मजबूती से लगाया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त पैकेजिंग के पूर्व पैकर का नाम, शहद की खेप संख्या, पैकिंग की तिथि व स्थान, निवल भार तथा अंतिम उपयोग की तिथि भी इंगित की जानी चाहिए।

शहद के उत्पादों का मूल्यवर्धन

मधुमक्खी पालन उद्योगों के प्राथमिक मूल्यवर्धक उत्पाद शहद, मधुमक्खी का मोम, पराग, प्रापलिस, रॉयल जैली, विष तथा रानी मधुमक्खी, आदि हैं। आजकल शहद के अनेक उपयोग हैं तथा इसे खाद्य व खाद्य घटकों के रूप में द्वितीयक उत्पादों के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। आहार के रूप में शहद का उपयोग केक, बिस्कुटों, ब्रेड, कांफेक्शनरी, कैंडी, जैम, स्प्रिट्स व दुग्धोत्पादों में किया जा सकता है। शहद के किण्वन से प्राप्त होने वाले उत्पाद शहद का सिरका, शहद की बीयर व एल्कोहॉली पेय हैं। शहद का उपयोग तम्बाकू उद्योग में तम्बाकू की गंध को सुधारने व उसे बनाए रखने के लिए किया जाता है। इसके अतिरिक्त शहद को अनेक सौंदर्य प्रसाधन उत्पादों जैसे मलहम, ऑइंटमेंट, क्रीम, शैम्पो, साबुन, टूथपेस्ट, डियोडरेंट, चेहरे की मास्क, मेक-अप, लिपस्टिक, इत्र आदि के रूप में भी किया जाता है।

सरकारी संगठनों नामतः पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू), लुधियाना, केन्द्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान (सीएफटीआरआई), मैसूर, केन्द्रीय मधुमक्खी अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान (सीबीआरटीआई), पुणे; व निजी उद्योग (विशेष रूप से मैसर्स काश्मीर एपीरीज़ एक्सपोर्ट्स), मधुमक्खी पालकों व मधुमक्खी उद्योग को अधिक लाभ कमाने में पहले से ही सहायता पहुंचाने लगे हैं। काश्मीर एपीरीज़ एक्सपोर्ट व लिटिल बी इम्पेक्स, दोराहा, लुधियाना पादप मूल के विभिन्न प्रकार के शहद उत्पन्न कर रहे हैं जैसे धनिया शहद, लीची शहद, सूरजमुखी शहद, बहुपुष्पीय शहद, शिवालिक शहद, जामुन शहद तथा जैविक/वन शहद आदि । इन फर्मों के कुछ मूल्यवर्धित उत्पाद हैं  – हनी ‘एन’ लैमन, हनी ‘एन’ जींजर, हनी ‘एन’ सिनामोन, हनी ‘एन’ तुलसी आदि। अनेक प्रकार के शहद व फल स्प्रिट, हनी ‘एन’ नट्स, हनी ‘एन’ ड्राइफ्रटस, शहद आधारित चाय; शहद आधारित सॉस/सीरप/शेक भी उत्पन्न करके बाजार में बेचे जा रहे हैं।

हमारे देश में शहद की खपत अभी कम है। इसे भोग विलास की वस्तु के रूप में बढ़ावा दिया जा रहा है और मुख्यतः इसका उपयोग औषधियों में हो रहा है। वर्तमान में शहद के कुछ मूल्यवर्धित उत्पाद विकसित किए गए हैं तथा ये भारतीय बाजारों में उपलब्ध हैं। । इस उद्योग का अभी तक इसकी क्षमता के अनुसार उपयोग नहीं हुआ है जबकि इसकी अपार संभावना है। वाणिज्यिक मधुमक्खी पालक मूल्यवर्धित उत्पाद संबंधी गतिविधियों में सहायता प्रदान कर सकते हैं, ताकि जहां एक ओर रोजगार सृजन में वृद्धि हो वहीं दूसरी ओर मधुमक्खी पालन में लगे कर्मियों को शहद का लाभदायक मूल्य मिलना सुनिश्चित हो सके। इस संबंध में राज्य में शहद के अनेक मूल्यवर्धित उत्पाद तैयार करने के लिए बुनियादी ढांचे संबंधी सुविधाएं सृजित करने की आवश्यकता है।

मधुमक्खी का मोम

मधुमक्खी मोम केवल मधुमक्खियां ही सृजित करती हैं। यह मोम 14-18 दिन आयु की कमेरी मधुमक्खियों द्वारा बनाया जाता है जिनके उदर के प्रतिपृष्ठ छोर पर 4 जोड़ी ग्रंथियां होती हैं। इसका उपयोग मुख्यतः छत्ते के आधार या नीव की चादर बनाने के लिए किया जाता है। इसके अतिरिक्त यह छत्ता बनाने के लिए प्राथमिक निर्माण सामग्री है। मोम का उपयोग पके हुए शहद पर ढक्कन लगाने के लिए तब किया जाता है जब इसे कुछ प्रापलिस के साथ मिलाया जाता है। इससे मधुमक्खी के झुण्ड को संक्रमण या रोग भी नहीं होता है। मधुमक्खियों का ताजा मोम सफेद होता है। लेकिन छत्ते में पराग के साथ उपयोग किए जाने पर यह गहरे रंग का हो जाता है तथा इसमें डिम्भकों का कचरा भी अनिवार्य रूप से मिल जाता है। अनुपचारित मधुमक्खी का मोम पीले रंग की विभिन्न आभाओं वाला हो जाता है। एक मधुमक्खी कालोनी से एक वर्ष में लगभग 800 ग्राम मधुमक्खी मोम इकट्ठा किया जा सकता है। राज्य में 2.5 लाख मधुमक्खी क्लोनियाँ उपलब्ध हैं। इसे ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि यहां प्रति वर्ष लगभग 180 टन मधुमक्खी का मोम (संकलन का अधिक से अधिक 90 प्रतिशत) एकत्र किया जा सकता है। चूंकि हरियाणा में लगभग 4.0 लाख मधुमक्खी क्लोनियाँ हैं, अतः यहां प्रति वर्ष लगभग 288 टन मधुमक्खी मोम एकत्रित किए जाने की क्षमता है।

मधुमक्खी के मोम का उपयोग मोमबत्तियां बनाने, औषधीय तथा सौंदर्य प्रसाधन उद्योग में किया जाता है।

पराग

परागकण नर उत्पादन इकाइयां हैं जो पुष्पों के परागकोष में उत्पन्न होती हैं। मधुमक्खियों द्वारा एकत्र किए गए पराग में सामान्यतः पुष्प रस होता है जिससे पराग परस्पर चिपके रहते हैं और मधुमक्खियों की पिछली टांगों से भी चिपक जाते हैं। परिणामस्वरूप मधुमक्खी कालोनी से एकत्र की गई पराग गुटिकाएं सामान्यतः स्वाद में मीठी होती हैं। तथापि, कुछ प्रकार के पराग तेलों से समृद्ध होते हैं तथा पुष्प रस या शहद के बिना ही चिपक जाते हैं। उड़ती हुई मधुमक्खी अपने एक भ्रमण के दौरान पुष्पों की एक से अधिक प्रजातियों से यदा-कदा ही पराग और पुष्प रस दोनों एकत्र करती है। इसके परिणामस्वरूप पराग गुटिकाओं का विशिष्ट रंग होता है जो अक्सर पीला होता है लेकिन यह लाल, बैंगनी, हरे, नारंगी अथवा किसी अन्य प्रकार के रंग का भी हो सकता है। मधुमक्खी के छत्तों में भंडारित आंशिक रूप से किण्वित पराग मिश्रण को ‘बी ब्रेड’ भी कहा जाता है तथा इसकी खेत से एकत्र किए गए पराग की गुटिकाओं की तुलना में भिन्न संरचना व पोषणिक गुण होते हैं। यह युवा कमेरी मधुमक्खियों द्वारा भोजन के रूप में खाया जाता है और इससे रॉयल जैली उत्पन्न होती है। एक औसत आकार की एपिस मेलिफेरा मधुमक्खी कालोनी को अपनी सामान्य जनसंख्या वृद्धि तथा सामान्य कार्य प्रणाली के लिए प्रति वर्ष लगभग 50 कि.ग्रा. या इससे अधिक पराग की आवश्यकता होती है।

यह पराग छत्ते के प्रवेश द्वार पर पराग फंदा लगाकर आसानी से एकत्र किया जा सकता है। पराग फंदा एकल या दोहरे ग्रिड की युक्ति है जिससे मधुमक्खियां छत्ते में प्रवेश करते समय डगमगा जाती हैं और इस प्रकार उनकी पिछली टांगों से चिपकी पराग गुटिकाएं ट्रे में गिर जाती हैं। एक श्रेष्ठ पराग प्रवाह मौसम के दौरान एपिस मेलीफेरा के एक छत्ते से कुछ कि.ग्रा. पराग गुटिकाएं प्राप्त करना संभव है। इस पराग फंदे का उपयोग सक्रिय पराग एकत्रीकरण अवधि के दौरान किया जाना चाहिए। पराग फंदे का उपयोग एक सप्ताह में दो दिन से अधिक नहीं किया जाना चाहिए (अधिक से अधिक 25 प्रतिशत संकलन के लिए)। वर्तमान में हरियाणा में उपलब्ध मधुमक्खी क्लोनियों  से लगभग 250 टन पराग एकत्र करना संभव है तथा इस राज्य में प्रति वर्ष लगभग 400 टन पराग उत्पन्न करने की क्षमता है।

पराग अथवा परागोत्पादों को सामान्यतः मनुष्यों के लिए लाभदायक उपयोग के रूप में दर्शाया गया है। इसके एंटीबायोटिक प्रभाव हैं जिससे भूख में सुधार होता है और शरीर का वजन भी बढ़ता है।

प्रापलिस

प्रापलिस एक चिपचिपा हल्के भूरे रंग का गोंद है जो मधुमक्खियां वृक्षों और कलियों से एकत्र करती हैं। मधुमक्खी कालोनी में प्रापलिस का उपयोग दरारों और खांचों को भरने तथा बाहरी अवांछित पदार्थों/परभक्षियों से बचने के लिए किया जाता है। चूंकि प्रापलिस विभिन्न प्रकार के वृक्षों तथा पौधों की अन्य प्रजातियों से एकत्र किया जाता है इसलिए ये गुणवत्ता तथा मात्रात्मक संघटन के मामले में एक दूसरे से प्राकृतिक रूप से भिन्न होते हैं।

प्रापलिस का संकलन छोटे छिद्रों वाली विशेष प्लेटों या छन्नों को रखकर किया जाता है। जिन्हें आंतरिक आवरण पर रखकर इस्तेमाल किया जाता है। इससे छत्ते की दीवारों में दरारें आ जाती हैं। मधुमक्खियां छेदों को बंद करने की कोशिश करती हैं और इस प्रकार उन्हें प्रापलिस से भर देती हैं।

प्रापलिस का उपयोग छत्तों की सभी भीतरी सतहों में वार्निश के लिए किया जाता है और इससे न केवल छत्तों तथा फ्रेमों के लिए लकड़ी का काम किया जाता है बल्कि वास्तविक मोमिया कोष्ठ भी तैयार किए जाते हैं। मधुमक्खियों के मोम तथा प्रापलिस का मिश्रण केवल मधुमक्खियों के मोम की तुलना में अधिक मजबूत होता है और मधुमक्खियां इस मिश्रण का उपयोग छत्ते के जुडाव वाले स्थान को मजबूत बनाने के लिए करती हैं। एक वर्ष में मधुमक्खी की एक कालोनी से लगभग 300 ग्राम प्रापलिस एकत्र करना संभव है। इस प्रकार, वर्तमान में हम लगभग 67.5 टन प्रापलिस एकत्र कर सकते हैं (संकलन का अधिक से अधिक 90 प्रतिशत) और हरियाणा राज्य में प्रति वर्ष लगभग 108 टन प्रापलिस एकत्र करने की क्षमता है।

प्रापलिस में विभिन्न विषाणुओं, जीवाणुओं और फफूदियों के विरुद्ध प्रतिसूक्ष्मजैविक गुण होते हैं। ऐसी रिपोर्टें हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान प्रापलिस घायल सैनिकों के घाव भरने में बहुत प्रभावी सिद्ध हुआ था। वर्तमान में प्रापलिस ओंठों पर लगाए जाने वाले बाम, त्वचा की क्रीमों, टिंचर, टूथपेस्ट आदि के लिए कैप्सूल के रूप में उपलब्ध है।

रॉयल जैली

रॉयल जैली युवा नर्स मक्खियों का दूधिया सफेद रंग का स्राव है। इसका उपयोग रानी मधुमक्खी जीवन पर्यन्त करती है तथा इसे कमेरी तथा नर मक्खियों के डिम्बकों को आरंभिक डिम्बक जीवन काल के दौरान ही दिया जाता है। मधुमक्खियों में इसका संश्लेषण हाइपोफेरिंजियल तथा मेंडिबुलर ग्रंथियों में होता है। इसे भंडारित नहीं किया जाता है तथा रानी मधुमक्खी और डिम्बकों को स्रवित होते ही सीधे खिला/पिला दिया जाता है।

रॉयल जैली के मुख्य घटक प्रोटीनों, शर्कराओं, वसाओं तथा खनिज लवणों के जलीय क्षार में घुले पायस हैं। ताजी रॉयल जैली में दो तिहाई पानी होता है। तथापि, शुष्क भार के अनुसार प्रोटीन व शर्कराओं का अंश अपेक्षाकृत काफी अधिक होता है।

छोटे पैमाने पर रॉयल जैली उत्पन्न करने के लिए मधुमक्खी पालक कालोनी से रानी मधुमक्खी को हटाकर आपातकालीन रानी मक्खी की कोशिकाओं से रॉयल जैली निकाल सकता है। वाणिज्यिक पैमाने पर रॉयल जैली का उत्पादन बड़े पैमाने पर रानी मक्खी के पालन की मानक तकनीकों में सुधार करके किया जा सकता है। एक वर्ष में एक कालोनी से लगभग 823 ग्राम रॉयल जैली एकत्र करना संभव है। इस प्रकार, वर्तमान में हम लगभग 10.28 टन रॉयल जैली एकत्र कर सकते हैं (संकलन का अधिक से अधिक 5 प्रतिशत) तथा हरियाणा राज्य में प्रति वर्ष लगभग 16.46 टन रॉयल जैली एकत्र करने की क्षमता है।

रॉयल जैली अत्यधिक पोषणिक है तथा इससे शक्ति व ऊर्जा के साथ-साथ उर्वरता में भी वृद्धि होती है।

मधुमक्खी का विष

मधुमक्खी विष मधुमक्खियों का जहर है। इस विष के सक्रिय अंश में प्रोटीनों का जटिल मिश्रण होता है जिससे स्थानीय प्रदाह उत्पन्न होता है और यह प्रति स्कंदक या रक्त का थक्का न जमने देने वाले पदार्थ के रूप में कार्य करता है। मधुमक्खी विष कमेरी मक्खियों के उदर में अम्लीय तथा क्षारीय स्रावों के मिश्रण से उत्पन्न होता है। मधुमक्खी विष प्रकृति में अम्लीय होता ह।

मधुमक्खियां अपने विष का उपयोग अपने शत्रुओं, विशेषकर परभक्षियों के विरुद्ध अपनी रक्षा के लिए करती हैं। नई जन्मी मधुमक्खी डंक मारने में अक्षम होती है क्योंकि इसका डंक किसी के शरीर में प्रवेश करने में अक्षम होता है। इसके अतिरिक्त इनके विष थैले में बहुत कम मात्रा में विष भंडारित होता है। दो सप्ताह आयु की मधुमक्खी के विष थैले में सबसे अधिक विष होता है।

पिछले वर्ष के 50वें दशक से मधुमक्खियों को डंक मारने हेतु प्रेरित करने के लिए बिजली के झटके देने की विधि का उपयोग किया जा रहा है। संग्राहक फ्रेम को सामान्यतः छत्ते के प्रवेश द्वार पर रख दिया जाता है तथा बिजली के झटके देने के लिए एक युक्ति जोड़ दी जाती है। संग्राहक फ्रेम लकड़ी या प्लास्टिक का बना होता है और इसमें तारों का एक घेरा होता है। इन तारों के नीचे कांच की एक शीट होती है जिसे प्लास्टिक या रबड़ की सामग्री से ढक दिया जाता है ताकि विष प्रदूषित न हो। संकलन के दौरान मधुमक्खियां तार की ग्रिड के सम्पर्क में आती हैं और उन्हें बिजली का हल्का झटका लगता है। वे संग्राहक शीट की सतह पर डंक मारती हैं क्योंकि वे उसे खतरे का स्रोत समझती हैं। डंक से निकला विष कांच तथा सुरक्षात्मक सामग्री के बीच जमा हो जाता है जहां इसे सुखाकर बाद में खुरच दिया जाता है। एक मधुमक्खी कालोनी से लगभग 50 मि.ग्रा. मधुमक्खी विष एकत्र करना संभव है। इस प्रकार हम हरियाणा में प्रति वर्ष लगभग 11.25 कि.ग्रा. मधुमक्खी विष एकत्र कर सकते हैं, हरियाणा में प्रति वर्ष लगभग 18.00कि.ग्रा.मधुमक्खी विष एकत्र करने की क्षमता हैI मधुमक्खी विष का उपयोग गठिया तथा अस्थि शोथ के साथ-साथ जोड़ों के दर्द को ठीक करने के लिए भी किया जाता है I

स्रोत: हरियाणा किसान आयोग, हरियाणा सरकार

उच्च उत्पादकता के लिये मधुमक्खियों की कॉलोनियों का प्रबंध
उच्च उत्पादकता के लिये मधुमक्खियों की कॉलोनियों का प्रबंध

भूमिका

मधुमक्खी क्लोनियों  की उत्पादकता संबंधित वनस्पतियां, मौसम की दशाओं व मधुमक्खियों की क्लोनियों  के प्रबंध पर निर्भर है। शहद उत्पादन के मौसम के दौरान तथा इसका मौसम न होने पर, दोनों ही स्थितियों में मधुमक्खियों की क्लोनियों  का प्रबंध उच्च कालोनी उत्पादकता प्राप्त करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। मधुमक्खी पालन संबंधी उपकरण भी वैज्ञानिक मधुमक्खी पालन के बहुत महत्वपूर्ण घटक हैं, अतः इनकी अच्छी गुणवत्ता व इनके उचित उपयोग से क्लोनियों  के निष्पादन में अत्यधिक सुधार होता है। उपरोक्त में से कुछ तथ्यों पर नीचे चर्चा की गई है।

मानक उपकरणों का उपयोग

यदि छत्ते और फ्रेम निर्धारित मानक आयामों व गुणवत्ता वाले न हों तो मधुमक्खियों की क्लोनियों  का प्रबंध अपर्याप्त और कठिन हो जाता है। अतः यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि पंजीकृत मधुमक्खी उपकरण निर्माता द्वारा निर्मित व आपूर्त किए गए छत्तों की गुणवत्ता की जांच मधुमक्खी पालन, वन विभाग अथवा वानिकी और राज्य के बागवानी तथा कृषि विभाग के विशेषज्ञों के एक दल द्वारा नियमित रूप से और जल्दी-जल्दी की जाए। मानक छत्तों के उपयोग से किसानों व मधुमक्खी पालकों को आसानी होती है और इसके परिणामस्वरूप क्लोनियों  का बेहतर प्रगुणन होता है। मानक गुणवत्तापूर्ण श्रेष्ठ छत्तों से नाशकजीवों के आक्रमण में कमी आती है क्योंकि नाशकजीवों के प्रवेश के लिए छत्ते के किसी भी भाग में न तो कोई अंतराल रहता है और न ही दरारें होती हैं।

क्लोनियों  का चयन

किसी मधुमक्खी पालन शाला में सभी मधुमक्खी क्लोनियों  का निष्पादन वृद्धि व उत्पादकता के संदर्भ में एक समान नहीं होता है। अतः क्लोनियों  के विद्यमान स्टॉक की छंटाई करना सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाता है, ताकि उन क्लोनियों  को चुना जा सके जिनसे अधिक शहद उत्पन्न हुआ है, ज्यादा छत्ते बने हैं, अधिक मधुमक्खी झुण्डों का पालन हुआ है, मधुमक्खियों के रोगों तथा शत्रुओं की अपेक्षाकृत कम समस्याएं सामने आई हैं तथा पिछले वर्ष की तुलना में मधुमक्खियों के उड़ जाने की कम घटनाएं हुई हैं।

सशक्त क्लोनियों  का रखरखाव

मधुमक्खी पालकों के लिए क्लोनियों  की संख्या का उतना महत्व नहीं है जितना महत्व इनसे प्राप्त होने वाले पदार्थ का है। हमें मधुमक्खी पालकों को इस तथ्य से अवगत कराना होगा कि बड़ी संख्या में निर्बल या औसत शक्ति की क्लोनियाँ रखने के बजाय उन्हें सशक्त क्लोनियाँ रखनी चाहिए, ताकि वे उच्च उत्पादकता ले सकें। सशक्त क्लोनियों  में अपेक्षाकृत मधुमक्खियों की अधिक संख्या होती है जिसके परिणामस्वरूप शहद का अधिक उत्पादन होता है। इसके अलावा सशक्त क्लोनियों  की चोरी से तो सुरक्षा होती ही है, ये मधुमक्खियों का उनके शत्रुओं से भी बचाव करती हैं।

रानी एक्सक्लूडर का उपयोग

शहद के प्रमुख प्रवाह के दौरान मधुमक्खियों की क्लोनियों  में अतिरिक्त नैक्टर और पराग होता है। इससे मधुमक्खियों की क्लोनियों  में अधिक मधुमक्खियां पल सकती हैं। जिन क्लोनियों  में 10 से अधिक मधुमक्खी फ्रेम होते हैं उनमें अधिक स्थान बनाने के लिए एक सुपर चैम्बर उपलब्ध कराया जाता है। वैज्ञानिक दृष्टि से रानी एक्सक्लूडर को ब्रूड तथा सुपर चैम्बरों के बीच रखा जाना चाहिए, ताकि सुपर चैम्बर से ब्रूड-मुक्त शहद के छत्ते प्राप्त किए जा सकें । तथापि, हमारे अधिकांश मधुमक्खी पालक ब्रूड तथा सुपर चैम्बरों के बीच रानी एक्सक्लूडर का उपयोग नहीं करते हैं जिसके कारण सुपर चैम्बर में मधुमक्खी के छत्तों में ब्रूड भी हो सकते हैं। हमारे मधुमक्खी पालक इस प्रकार के छत्तों से शहद तो प्राप्त कर लेते हैं लेकिन शहद निकालने की प्रक्रिया के दौरान ब्रूड मक्खियों के मर जाने के कारण मधुमक्खियों की संख्या कम हो जाती है। अतः गुणवत्तापूर्ण रानी एक्सक्लूडर की उपलब्धता सुनिश्चित करने तथा उनके उपयोग को लोकप्रिय बनाने की आवश्यकता है।

चयनशील विभाजन

क्लोनियों  की संख्या बढ़ाने के लिए अधिकांश मधुमक्खी पालक अपनी क्लोनियों  को विभाजित कर देते हैं। यह तकनीक बहुत आसान है लेकिन इस परिणामस्वरूप स्टॉक का अनियंत्रित या आंशिक रूप से नियंत्रित प्रगुणन होता है। बेहतर निष्पादन देने वाली तथापि घटिया निष्पादन देने वाली नर मधुमक्खियों और रोग के प्रति संवेदनशील क्लोनियों  में भी ये नर मधुमक्खियां नई पाली गई रानी मधुमक्खियों का निषेचन कर देती हैं। मधुमक्खी क्लोनियों  के तेजी से विकास के लिए विभाजन की परंपरागत विधियों के स्थान पर छोटे मधुमक्खी पालन केन्द्रों में चयनशील विभाजन को अपनाया जाना चाहिए तथा उच्च शहद उत्पादन लेने वाले रोगों के प्रति प्रतिरोधी/सहिष्णु मक्खियों के प्रजनन के लिए चुनी हुई क्लोनियों  से बड़े पैमाने पर रानी मधुमक्खियों के पालन की विधि अपनाई जानी चाहिए।

संक्रमित/प्रभावित क्लोनियों  को चिह्नित व विलगित करना

सामान्य रूप से कार्यशील स्वस्थ क्लोनियों  का प्रबंध रोग या नाशकजीवों से संक्रमित क्लोनियों  के प्रबंध से पर्याप्त भिन्न है लेकिन यह तभी संभव है जब रोगी क्लोनियों  को चिह्नित व विलगित कर लिया गया हो। मधुमक्खियों की कुटकियों व रोगों के तेजी से फैलने के कारण हमारे मधुमक्खी पालकों को काफी नुकसान होता है क्योंकि वे यह सामान्य दिशानिर्देश नहीं अपनाते हैं। मधुमक्खियों के रोगों व शत्रुओं के प्रसार को कम करने में यह पहलू महत्वपूर्ण है, अतः प्रशिक्षण कार्यक्रमों में रसायनों के उपयोग से बचने पर बल दिया जाना चाहिए।

उचित व समय पर प्रवासन

हरियाणा में मधुमक्खी पालकों को किसी बड़े क्षेत्र में वर्षभर मधुमक्खियों के लिए इतनी वनस्पतियां उपलब्ध नहीं होती हैं कि वे शहद का उच्च उत्पादन ले सकें और क्लोनियों  की भी वृद्धि होती रहे। इससे विभिन्न समयावधियों पर मधुमक्खी क्लोनियों  को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने या प्रवासन की आवश्यकता होती है। राज्य में या राज्य के बाहर यह प्रवासन मधुमक्खी क्लोनियों  का उचित रूप से पैक बंद करके किया जाना चाहिए। यदि छत्तों में प्रवेश द्वार को खुला रखकर प्रवासन किया जाता है तो स्वस्थ व रोगी अथवा कुटकियों से संक्रमित क्लोनियाँ आपस में मिल जाती हैं। इससे मधुमक्खियों के रोगों व कुटकियों के प्रसार को बढ़ावा मिलता है। गर्मियों के मौसम में क्लोनियों  के परिवहन के दौरान मधुमक्खियां न मरे इससे बचने के लिए क्लोनियों  में ऊपर की ओर यात्रा पटल तथा प्रवेश द्वारों पर तार की जाली लगाई जानी चाहिए।

झुण्ड से बचाव

यदि समय पर देखभाल न की जाए तो झुण्ड बनने के कारण मधुमक्खियों को बहुत नुकसान होता है। कम से कम झुण्ड बनाने की प्रवृत्ति के साथ क्लोनियों  में रानी मधुमक्खी का पालन तथा पकड़े गए झुण्डों से रानियों को न एकत्र करने से इस नुकसान को कम किया जा सकता है। हरियाणा के मधुमक्खी पालकों को, विशेष रूप से सरसों की फसल के मौसम के दौरान मधुमक्खियों के झुण्ड की समस्या का सामना करना पड़ता है। इससे मधुमक्खियों के शत्रुओं व रोगों के अप्रभावित/असंक्रमित क्षेत्रों में फैलने की संभावना रहती है। अतः मधुमक्खी पालकों को झुण्डों का प्रबंध करने के अपने उपाय अपनाने की बजाय चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा सुझाए गए सुरक्षात्मक उपायों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

बाहरी झुण्डों के छत्ते बनाना

पकड़े गए झुण्डों से मधुमक्खी पालन से प्राप्त होने वाला लाभ बढ़ जाता है लेकिन इन पकड़े गए झुण्डों की कुछ दिनों तक निगरानी की जानी चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि ये झुण्ड नाशकजीवों और रोगों से मुक्त हैं।

चोरी पर नियंत्रण

चोरी पर नियंत्रण न केवल मधुमक्खियों के नुकसान से बचने के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि इससे चोरों द्वारा फैलने वाले कुटकियों और रोगों से भी बचाव होता है। कमजोर क्लोनियाँ चोरी होने पर रोगों व नाशकजीवों के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं।

खुले में भोजन उपलब्ध कराने से बचना

हरियाणा तथा इसके आस-पास के राज्यों में कई मधुमक्खी पालक मधुमक्खी क्लोनियों  में खुले में भोजन उपलब्ध कराते हैं। हालांकि यह मधुमक्खियों को भोजन देने की आसान व त्वरित विधि है लेकिन यह अत्यंत वैज्ञानिक है और इससे मधुमक्खी पालन शाला व इसके आस-पास की अन्य मधुमक्खी पालन शालाओं में कुटकियां तथा रोग फैल सकते हैं।

बे-मौसम में कालोनी प्रबंध

क्लोनियों  से उच्चतर उत्पादकता लेने के लिए मधुमक्खी क्लोनियों  को शहद प्रवाह का मुख्य मौसम शुरू होने से ही अत्यंत सशक्त होना चाहिए। इसके लिए शहद का मौसम न होने पर क्लोनियों  का बेहतर प्रबंध करना जरूरी हो जाता है। भोजन उपलब्ध कराने या कालोनी प्रबंध के किसी भी दिशानिर्देश की उपेक्षा करने से क्लोनियाँ और भी कमजोर हो जाती हैं और इस प्रकार वे चोरी तथा नाशीजीव संक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती हैं। पराग की कमी की अवधि के दौरान मधुमक्खी झुण्ड के पालन के लिए पराग के स्वादिष्ट तथा प्रभावी विकल्प के विकास से शहद का मौसम न होने के दौरान भी क्लोनियों  को सशक्त बनाए रखने में सहायता मिलती है।

गुणवत्तापूर्ण शहद का उत्पादन

निर्यात किए जाने के लिए शहद के गुणवत्तापूर्ण प्राचलों को पूरा करने के लिए यह जरूरी है। कि शहद एंटीबायोटिक्स, रसायनों, नाशकजीवनाशियों से मुक्त हो और उसमें कोई मिलावट न हो। इसके लिए अच्छी तरह पके हुए शहद को निकालने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसे दो-आयामी दृष्टिकोण अपनाकर प्राप्त किया जा सकता है। इसके अंतर्गत मधुमक्खी पालकों को शिक्षित करने, प्रशिक्षण देने व प्रोत्साहित करने के अलावा रोगों तथा शत्रुओं से मुक्त मधुमक्खियों के लिए प्रभावी गैर-रासायनिक नियंत्रण उपायों को विकसित करने की जरूरत है। अनेक मधुमक्खी पालक ऐसे रसायनों व उपचार की विधियों का उपयोग कर रहे हैं जिनकी सिफारिश नहीं की जा सकती है। अतः हमारे प्रशिक्षण कार्यक्रमों में मधुमक्खी पालकों को इन मुद्दों का प्रशिक्षण देने पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए । गुणवत्तापूर्ण पका हुआ शहद उत्पन्न करने पर प्रीमियम दाम दिए जाने से अन्य मधुमक्खी पालकों को भी इस अभियान में जोड़ने में सहायता मिलेगी। प्राप्त किया गया गुणवत्तापूर्ण शहद भी यदि अस्वच्छ तथा मिलावट पात्रों में रखा जाता है तो उसकी गुणवत्ता कम हो जाती है। अतः सस्ती कीमत पर खाद्य श्रेणी के प्लास्टिक के पात्रों के उपलब्ध होने पर शहद की गुणवत्ता को बरकरार रखा जा सकता है।

गुणवत्तापूर्ण रानियों का नर मधुमक्खियों से युग्मन

चूंकि किसी मधुमक्खी कालोनी की उत्पादकता मुख्यतः उसकी प्रमुख रानी की गुणवत्ता पर निर्भर करती है, इसलिए रानी मक्खियों को सर्वश्रेष्ठ निष्पादन देने वाले स्टॉक से लिया जाना चाहिए। कुछ प्रगतिशील मधुमक्खी पालक ऐसा कर रहे हैं। तथापि, केवल चुनी हुई नर मधुमक्खियों की क्लोनियों  से इन रानी मधुमक्खियों का युग्मन कराया जाना चाहिए, ताकि नव विकसित रानी मधुमक्खियों से सर्वाधिक लाभ उठाया जा सके। प्रगतिशील मधुमक्खी पालकों के लिए चलाए जाने वाले प्रगत प्रशिक्षणों में इस पहलू के महत्व, इसकी तर्कसंगतता व इससे संबंधित दिशानिर्देशों को शामिल किया जाना चाहिए।

स्रोत: हरियाणा किसान आयोग, हरियाणा सरकार

मीठी क्रांति
मीठी क्रांति

कृषि आधारित गतिविधि

मधुमक्खी पालन एक कृषि आधारित गतिविधि है, जो एकीकृत कृषि व्यवस्था (आईएफएस) के तहत ग्रामीण क्षेत्र में किसान/ भूमिहीन मजदूरों द्वारा की जा रही है। फसलों के परागण में मधुमक्खी पालन खासा उपयोगी है, जिससे कृषि आय में बढ़ोतरी के माध्यम से किसानों/ मधुमक्खी पालकों की आय बढ़ रही है और शहद व बी वैक्स, बी पोलेन, प्रोपोलिस, रॉयल जेली, बी वेनोम आदि महंगे मधुमक्खी उत्पाद उपलब्ध हो रहे हैं। भारत की विविधतापूर्ण कृषि जलवायु मधुमक्खी पालन/ शहद उत्पादन और शहद के निर्यात के लिए व्यापक संभावनाएं और अवसर उपलब्ध कराती है।

राष्ट्रीय मधुमक्खी पालन एवं शहद मिशन (एनबीएचएम) 

देश में एकीकृत कृषि प्रणाली के तहत मधुमक्खी पालन के महत्व को ध्यान में रखते हुए सरकार ने तीन साल (2020-21 से 2022-23) के लिए राष्ट्रीय मधुमक्खी पालन एवं शहद मिशन (एनबीएचएम) को 500 करोड़ रुपये के आवंटन को स्वीकृति दे दी है। इस मिशन की घोषणा आत्मनिर्भर भारत योजना के तहत की गई थी। एनबीएचएम का उद्देश्य ‘मीठी क्रांति’ के लक्ष्य को हासिल करने के लिए देश में वैज्ञानिक आधार पर मधुमक्खी पालन का व्यापक संवर्धन और विकास है, जिसे राष्ट्रीय मधुमक्खी बोर्ड (एनबीबी) के माध्यम से लागू किया जा रहा है।

 उद्देश्य

एनबीएचएम का मुख्य उद्देश्य कृषि और गैर कृषि परिवारों के लिए आमदनी और रोजगार संवर्धन के उद्देश्य से मधुमक्खी पालन उद्योग के समग्र विकास को प्रोत्साहन देना, कृषि/ बागवानी उत्पादन को बढ़ाना, अवसंरचना सुविधाओं के विकास के साथ ही एकीकृत मधुमक्खी विकास केन्द्र (आईबीडीसी)/ सीओई,शहद परीक्षण प्रयोगशालाओं, मधुमक्खी रोग नैदानिकी प्रयोगशालाएं, परम्परागत भर्ती केन्द्रों, एपि थेरेपी केन्द्रों, न्यूक्लियस स्टॉक, बी ब्रीडर्स आदि की स्थापना और मधुमक्खी पालन के माध्यम से महिलाओं का सशक्तिकरण है।

इसके अलावा, योजना का उद्देश्य मिनी मिशन-1 के अंतर्गत वैज्ञानिक पद्धति से मधुमक्खी पालन, मधुमक्खी पालन के प्रबंधन, मधुमक्खी उत्पादों के बारे में जागरूकता के प्रसार के साथ ही मिनी मिशन-2 के अंतर्गत संग्रहण, प्रसंस्करण, भंडारण, विपणन, मूल्य संवर्धन आदि और मिनी मिशन-3 के अंतर्गत मधुमक्खी पालन में शोध एवं प्रौद्योगिकी उत्पादन हैं। 2020-21 के लिए एनबीएचएम को 150 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है।

वैज्ञानिक मधुमक्खी पालन को लेकर जागरूकता और क्षमता निर्माण, मधुमक्खी पालन के माध्यम से महिलाओं का सशक्तिकरण, आय बढ़ाने में तकनीक का मधुमक्खियों पर प्रभाव और कृषि/ बागवानी उत्पाद की गुणवत्ता में सुधार के लिए एनबीएचएम के अंतर्गत 2,560 लाख रुपये की 11 परियोजनाओं को स्वीकृति दी गई है। इसका उद्देश्य किसानों को रॉयल जेली, बी वेनोम, कॉम्ब हनी आदि महंगे उत्पादों के उत्पादन के लिए विशेष मधुमक्खी पालन उपकरणों के वितरण और हाई अल्टीट्यूड हनी के लिए संभावनाएं तलाशना, उत्तर प्रदेश के कन्नौजव हाथरस जिलों में विशेष उत्पादन और वर्ष 2020-21 के दौरान पेट के कैंसर के उपचार में मस्टर्ड शहद के इस्तेमाल के बारे जानकारी देना भी है।

मुख्य उपलब्धियां

  • दो विश्व स्तरीय अत्याधुनिक शहद परीक्षण प्रयोगशालाओं की स्थापना के लिए स्वीकृति दी गई है, जिनमें से एक एनडीडीबी, आणंद, गुजरात और दूसरी आईआईएचआर, बंगलुरू, कर्नाटक में होगी। आणंद स्थित प्रयोगशाला को एनएबीएल द्वारा मान्यता दे दी गई है और केन्द्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री द्वारा 24 जुलाई, 2020 को इसका शुभारम्भ कर दिया गया। अब इस प्रयोगशाला में एफएसएसएआई द्वारा अधिसूचित सभी मानदंडों के लिए शहद के नमूनों का परीक्षण शुरू कर दिया गया है।
  • 16  लाख हनीबी कॉलोनीज के साथ 10,000 मधुमक्खी पालकों/ मधुमक्खी पालन एवं शहद समितियां/ फर्म्स/ कंपनियां एनबीबी में पंजीकृत हो गई हैं।
  • शहद एवं अन्य मधुमक्खी उत्पादों के स्रोत का पता लगाने के लिए एक प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी गई है और इस दिशा में काम शुरू कर दिया गया है। इससे शहद और अन्य मधुमक्खी उत्पादों में मिलावट को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी।
  • किसानों/ मधुमक्खी पालकों को बी पोलेन, प्रोपोलिस, रॉयल जेली, बी वेनोम आदि ऊंची कीमत वाले मधुमक्खी उत्पादों के उत्पादन सहित वैज्ञानिक मधुमक्खी पालन में प्रशिक्षण दिया गया है।
  • बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और पश्चिम बंगाल राज्यों में मधुमक्खी पालकों/ शहद उत्पादकों के 5 एफपीओ बनाए गए हैं और कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने 26.11.2020 में इनका शुभारम्भ कर दिया गया।
  • शहद उत्पादन 76,150मीट्रिकटन (2013-14) से बढ़कर 1,20,000 मीट्रिकटन (2019-20) हो गया है, जो 57.58 प्रतिशत बढ़ोतरी है।
  • शहद का निर्यात 28,378.42 मीट्रिकटन से बढ़कर 59,536.74 मीट्रिकटन(2019-20) हो गया है, जो 109.80 प्रतिशत बढ़ोतरी है।
  • रोल मॉडल के रूप में 16 एकीकृत मधुमक्खी पालन विकास केन्द्रों (आईबीडीसी) की स्थापना की गई है, जिनमें से हरियाणा, दिल्ली, बिहार, पंजाब, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मणिपुर, उत्तराखंड, जम्मू व कश्मीर, तमिलनाडु, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, आंध्र प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश राज्यों में 1-1 केन्द्र की स्थापना की गई है।
  • विभिन्न फसलों के परागण समर्थन में मधुमक्खियों/ मधुमक्खी पालन की भूमिका और वैज्ञानिक मधुमक्खी पालन को अपनाने के बारे में जागरूकता का प्रसार किया गया है। 

स्त्राेत :  पत्र सूचना कार्यालय, भारत सरकार।

वर्मीकम्पोस्ट बनाने की विधि
वर्मीकम्पोस्ट बनाने की विधि

सामान्य विधि (General method)

वर्मीकम्पोस्ट बनाने के लिए इस विधि में क्षेत्र का आकार (area) आवश्यकतानुसार रखा जाता है किन्तु मध्यम वर्ग के किसानों के लिए 100 वर्गमीटर क्षेत्र पर्याप्त रहता है। अच्छी गुणवत्ता की केंचुआ खाद बनाने के लिए सीमेन्ट तथा इटों से पक्की क्यारियां (Vermi-beds) बनाई जाती हैं। प्रत्येक क्यारी की लम्बाई 3 मीटर, चौड़ाई 1 मीटर एवं ऊँचाई 30 से 50 सेमी0 रखते हैं। 100 वर्गमीटर क्षेत्र में इस प्रकार की लगभग 90 क्यारियां बनाइ र् जा सकती है। क्यारियों को तेज धूप व वर्षा से बचाने और केंचुओं के तीव्र प्रजनन के लिए अंधेरा रखने हेतु छप्पर और चारों ओर टटि्‌टयों से हरे नेट से ढकना अत्यन्त आवश्यक है।

क्यारियों को भरने के लिए पेड़-पौधों की पत्तियाँ घास,सब्जी व फलों के छिलके, गोबर आदि अपघटनशील कार्बनिक पदार्थों का चुनाव करते हैं। इन पदार्थों को क्यारियों में भरने से पहले ढ़रे बनाकर 15 से 20 दिन तक सड़ने के लिए रखा जाना आवश्यक है। सड़ने के लिए रखे गये कार्बनिक पदार्थों के मिश्रण में पानी छिड़क कर ढेऱ को छोड़ दिया जाता है। 15 से 20 दिन बाद कचरा अधगले रूप (Partially decomposed ) में आ जाता है। ऐसा कचरा केंचुओं के लिए बहुत ही अच्छा भोजन माना गया है। अधगले कचरे को क्यारियों में 50 से.मी. ऊँचाई तक भर दिया जाता है। कचरा भरने के 3-4 दिन बाद पत्तियों की क्यारी में केंचुऐं छोड़ दिए जाते हैं और पानी छिड़क कर प्रत्येक क्यारी को गीली बोरियो से ढक देते है। एक टन कचरे से 0.6 से 0.7 टन केंचुआ खाद प्राप्त हो जाती है।

चक्रीय चार हौद विधि (Four-pit method)

इस विधि में चुने गये स्थान पर 12’x12’x2.5’(लम्बाई x चौड़ाई x ऊँचाई) का गड्‌ढा बनाया जाता है। इस गड्‌ढे को ईंट की दीवारों से 4 बराबर भागों में बांट दिया जाता है। इस प्रकार कुल 4 क्यारियां बन जाती हैं। प्रत्येक क्यारी का आकार लगभग 5.5’ x 5.5’ x 2.5’ होता है। बीच की विभाजक दीवार मजबूती के लिए दो ईंटों (9 इंच) की बनाई जाती है। विभाजक दीवारों में समान दूरी पर हवा व केंचुओं के आने जाने के लिए छिद्र छोड़ जाते हैं। इस प्रकार की क्यारियों की संख्या आवश्यकतानुसार रखी जा सकती है।

इस विधि में प्रत्येक क्यारी को एक के बाद एक भरते हैं अर्थात पहले एक महीने तक पहला गड्‌ढा भरते हैं पूरा गड्‌ढा भर जाने के बाद पानी छिड़क कर काले पॉलीथिन से ढक देते हैं ताकि कचरे के विघटन की प्रक्रिया आरम्भ हो जाये। इसके बाद दूसरे गड्‌ढे में कचरा भरना आरम्भ कर देते हैं। दूसरे माह जब दूसरा गड्‌ढा भर जाता है तब ढक देते हैं और कचरा तीसरे गड्‌ढे में भरना आरम्भ कर देते हैं। इस समय तक पहले गड्‌ढे का कचरा अधगले रूप में आ जाता है। एक दो दिन बाद जब पहले गड्‌ढे में गर्मी (heat) कम हो जाती है तब उसमें लगभग 5 किग्रा0 (5000) केंचुए छोड़ देते हैं। इसके बाद गड्‌ढे को सूखी घास अथवा बोरियों से ढक देते हैं। कचरे में गीलापन बनाये रखने के लिए आवश्यकतानुसार पानी छिड़कते रहते है। इस प्रकार 3 माह बाद जब तीसरा गड्‌ढा कचरे से भर जाता है तब इसे भी पानी से भिगो कर ढक देते हैं और चौथे को गड्‌ढे में कचरा भरना आरम्भ कर देते हैं। धीरे-धीरे जब दूसरे गड्‌ढे की गर्मी कम हो जाती है तब उसमें पहले गड्‌ढे से केंचुए विभाजक दीवार में बने छिद्रों से अपने आप प्रवेश कर जाते हैं और उसमें भी केंचुआ खाद बनना आरम्भ हो जाती है। इस प्रकार चार माह में एक के बाद एक चारों गड्‌ढे भर जाते हैं। इस समय तक पहले गड्‌ढे में जिसे भरे हुए तीन माह हो चुके हैं केंचुआ खाद (वर्मीकम्पोस्ट) बनकर तैयार हो जाती है। इस गड्‌ढे के सारे केंचुए दूसरे एवं तीसरे गड्‌ढे में धीरे-धीरे  बीच की दीवारों में बने छिद्रों द्वारा प्रवेश कर जाते हैं। अब पहले गड्‌ढे से खाद निकालने की प्रक्रिया आरम्भ की जा सकती है। खाद निकालने के बाद उसमें पुन: कचरा भरना आरम्भ कर देते हैं। इस विधि में एक वर्ष में प्रत्यके गड्‌ढे में एक बार में लगभग 10 कुन्तल कचरा भरा जाता है जिससे एक बार में 7 कुन्तल खाद (70 प्रतिशत) बनकर तैयार होती है। इस प्रकार एक वर्ष में चार गड्‌ढों से तीन चक्रों में कुल 84 कुन्तल खाद (4x3x7) प्राप्त होती है। इसके अलावा एक वर्ष में एक गड्‌ढे से 25 किग्रा0 और 4 गड्‌ढों से कुल 100 किग्रा0 केंचुए भी प्राप्त होते हैं।

केंचुआ खाद बनाने की चरणबद्ध विधि

केंचुआ खाद बनाने हेतु चरणबद्ध निम्न प्रक्रिया अपनाते हैं।

चरण-1

कार्बनिक अवशिष्ट/ कचरे में से पत्थर,काँच,प्लास्टिक, सिरेमिक तथा धातुओं को अलग करके कार्बनिक कचरे के बड़े ढ़ेलों को तोड़कर ढेर बनाया जाता है।

चरण–2

मोटे कार्बनिक अवशिष्टों जैसे पत्तियों का कूड़ा, पौधों के तने, गन्ने की भूसी/खोयी को 2-4 इन्च आकार के छोटे-छोटे टुकड़ों में काटा जाता है। इससे खाद बनने में कम समय लगता है।

चरण–3

कचरे में से दुर्गन्ध हटाने तथा अवाँछित जीवों को खत्म करने के लिए कचरे को एक फुट मोटी सतह के रुप में फुलाकर धूप में सुखाया जाता है।

चरण–4

अवशिष्ट को गाय के गोबर में मिलाकर एक माह तक सड़ाने हेतु गड्डों में डाल दिया जाता है। उचित नमी बनाने हेतु रोज पानी का छिड़काव किया जाता है।

चरण–5

केंचुआ खाद बनाने के लिए सर्वप्रथम फर्श पर बालू की 1 इन्च मोटी पर्त बिछाकर उसके ऊपर 3-4 इन्च मोटाई में फसल का अवशिष्ट/मोटे पदार्थों की पर्त बिछाते हैं। पुन: इसके ऊपर चरण-4 से प्राप्त पदार्थों की 18 इन्च मोटी पर्त इस प्रकार बिछाते हैं कि इसकी चौड़ाई 40-45 इन्च बन जाती है। बेड की लम्बाई को छप्पर में उपलब्ध जगह के आधार पर रखते हैं। इस प्रकार 10 फिट लम्बाई की बेड में लगभग 500 कि.ग्रा. कार्बनिक अवशिष्ट समाहित हो जाता है। बेड को अर्धवृत्त प्रकार का रखते हैं जिससे केंचुए को घूमने के लिए पर्याप्त स्थान तथा बेड में हवा का प्रबंधन संभव हो सके। इस 17 प्रकार बेड बनाने के बाद उचित नमी बनाये रखने के लिए पानी का छिड़काव करते रहते है तत्पश्चात इसे 2-3 दिनों के लिए छोड़ देते हैं।

चरण–6

जब बेड के सभी भागों में तापमान सामान्य हो जाये तब इसमें लगभग 5000 केंचुए / 500 0ग्रा0 अवशिष्ट की दर से केंचुआ तथा कोकून का मिश्रण बेड की एक तरफ से इस प्रकार डालते हैं कि यह लम्बाई में एक तरफ से पूरे बेड तक पहुँच जाये।

चरण–7

सम्पूर्ण बेड को बारीक / कटे हुए अवशिष्ट की 3-4 इन्च मोटी पर्त से ढकते हैं, अनुकूल परिस्थितयों में केंचुए पूरे बेड पर अपने आप फलै जाते हैं। ज्यादातर केंचुए बेड में 2-3 इन्च गहराई पर रहकर कार्बनिक पदार्थों का भक्षण कर उत्सर्जन करते रहते हैं।

चरण–8

अनुकूल आर्द्रता, तापक्रम तथा हवामय परिस्थितयोंमें 25-30 दिनों के उपरान्त बडै की ऊपरी सतह पर 3-4 इन्च मोटी केंचुआ खाद एकत्र हो जाती हैं। इसे अलग करने के लिए बेड की बाहरी आवरण सतह को एक तरफ से हटाते हैं। ऐसा करने पर जब केंचुए बेड में गहराई में चले जाते हैं तब केंचुआ खाद को बडे से आसानी से अलग कर तत्पश्चात बेड को पुनः पूर्व की भाँति महीन कचरे से ढक कर पर्याप्त आर्द्रता बनाये रखने हेतु पानी का छिड़काव कर देते हैं।

चरण–9

लगभग 5-7 दिनों में केंचुआ खाद की 4-6 इन्च मोटी एक और पर्त तैयार हो जाती है। इसे भी पूर्व में चरण-8 की भाँति अलग कर लेते हैं तथा बेड में फिर पर्याप्त आर्द्रता बनाये रखने हेतु पानी का छिड़काव किया जाता है।

चरण–10

तदोपरान्त हर 5-7 दिनोंके अन्तराल में अनुकूल परिस्थतियों में पुन: केंचुआ खाद की 4-6 इन्च मोटी पर्त बनती है जिसे पूर्व में चरण-9 की भाँति अलग कर लिया जाता है। इस प्रकार 40-45 दिनोंमें लगभग 80-85 प्रतिशत केंचुआ खाद एकत्र कर ली जाती है।

चरण–11

अन्त में कुछ केचुआ खाद केंचुओं तथा केचुए के अण्डों (कोकूनद) सहित एक छोटे से ढेर के रुप में बच जाती है। इसे दूसरे चक्र में केचुए के संरोप के रुप में प्रयुक्त कर लेते हैं। इस प्रकार लगातार केंचुआखाद उत्पादन के लिए इस प्रि क्रया को दोहराते रहते हैं।

चरण–12

एकत्र की गयी केंचुआ खाद से केंचुए के अण्डों अव्यस्क केंचुओं तथा केंचुए द्वारा नहीं खाये गये पदार्थों को 3-4 से.मी. आकार की छलनी से छान कर अलग कर लेते हैं।

चरण–13

अतिरिक्त नमी हटाने के लिए छनी हुई केचुआ खाद को पक्के फर्श पर फैला देते हैं। तथा जब नमी लगभग 30-40 प्रतिशत तक रह जाती है तो इसे एकत्र कर लेते हैं।

चरण–14

केंचुआ खाद को प्लास्टिक/एच0 डी0 पी0 ई0 थैले में सील करके पैक किया जाता है ताकि इसमें नमी कम न हो।

वर्मीकम्पोस्ट बनाते समय ध्यान रखने योग्य बातें

कम समय में अच्छी गुणवत्ता वाली वर्मीकम्पोस्ट बनाने के लिए निम्न बातोंपर विशेष ध्यान देना अति आवश्यक है ।

1. वर्मी बेडों में केंचुआ छोड़ने से पूर्व कच्चे माल (गोबर व आवश्यक कचराद्) का आंशिक विच्छेदन (Partial decomposition) जिसमें 15 से 20 दिन का समय लगता है करना अति आवश्यक है।

2. आंशिक विच्छेदन की पहचान के लिए ढेऱ में गहराई तक हाथ डालने पर गर्मीं महसूस नहीं होनी चाहिए। ऐसी स्थिति में कचरे की नमीं की अवस्था में पलटाई करने से आंशिक विच्छेदन हो जाता है।

3. वर्मी बेडों में भरे गये कचरे में कम्पोस्ट तैयार होने तक 30 से 40 प्रतिशतनमी बनाये रखें। कचरें में नमीं कम या अधिक होने पर केंचुए ठीक तरह से कार्य नही करतें।

4. वर्मीवेडों में कचरे का तापमान 20 से 27 डिग्री सेल्सियस रहना अत्यन्त आवश्यक है। वर्मीबेडों पर तेज धूप न पड़ने दें। तेज धूप पड़ने से कचरे का तापमान अधिक हो जाता है परिणामस्वरूप केंचुए तली में चले जाते हैं अथवा अक्रियाशील रह कर अन्ततः मर जाते हैं।

5. वर्मीबेड में ताजे गोबर का उपयोग कदापि न करें। ताजे गोबर में गर्मी (Heat) अधिक होने के कारण केंचुए मर जाते हैं अतः उपयोग से पहले ताजे गोबर को 4व 5 दिन तक ठण्डा अवश्य होने दें।

6. केंचुआखाद तैयार करने हेतु कार्बि नक कचरे में गोबर की मात्रा कम से कम 20 प्रतिशत अवश्य होनी चाहिए।

7. कांग्रेस घास को फूल आने से पूर्व गाय के गोबर में मिला कर कार्बनिकपदार्थ के रूप में आंशिक विच्छेदन कर प्रयोग करने से अच्छी केंचुआ खाद प्राप्त होती है।

8. कचरे का पी. एच. उदासीन (7.0 के आसपास) रहने पर केंचुए तेजी से कार्य करते हैं अतः  वर्मीकम्पोस्टिंग के दौरान कचरे का पी. एच. उदासीन बनाये रखे। इसके लिए कचरा भरते समय उसमें राख (ash) अवश्य मिलाएं।

9. केंचुआ खाद बनाने के दौरान किसी भी तरह के कीटनाशकों का उपयोग न करें।

10. खाद की पलटाई या तैयार कम्पोस्ट को एकत्र करते समय खुरपी या फावडे़ का प्रयोग कदापि न करें।

स्त्रोत : डॉ. डी कुमार एवं डॉ. धर्म सिंह, जगत सिंह द्वारा लिखित,इंडिया वॉटर पोर्टल,राष्ट्रीय जैविक खेती केंद्र,गाजियाबाद

केंचुआ पालन की विधि
केंचुआ पालन की विधि

परिचय

वर्मी –कंपोस्ट को वर्मी कल्चर या केंचुआ पालन भी कहा जाता है| विदेशों में इसे व्यवसायिक रूप में मछलियों की खाद के लिए सन 1950 से इसका उत्पादन प्रारंभ किया गया| धीरे –धीरे यह उद्योग का रूप लेने लगा और 1970 तक अनेक देशों ने इसे मछलियों के खाद्य के लिए इस व्यवसाय को अपनाया| गोबर, सूखे एवं हरे पत्ते, घास फूस, धन का पुआल, मक्का/बाजरा की कड़वी, खेतों के बेस्ट (छोड़े गए पदार्थ), डेयरी/कूक्कूट वेस्ट, सिटी गरवेज (शहरी निष्कासित पदार्थ) इत्यादि खाकर केंचुओं द्वारा प्राप्त मल (कास्ट) से तैयार खाद ही वर्मी कंपोस्ट कहलाती है| यह हर प्रकार के पेड़-पौधों, फल वृक्षों, सब्जियों, फसलों के लिए पूर्णरूप से प्रकृतिक, सम्पूर्ण व सन्तुलित आहार (पोषण खाद) है| इससे बेरोजगार युवकों, ऋणियों एवं भावी-पीढ़ी को रोजगार के अवसर प्रदान किए जा सकते हैं, साथ ही पर्यावरण प्रदूषण की भी समस्या कुछ हद तक सुलझ सकती हैं| केंचुओं को किसानों का सच्चा मित्र कहा जाता है, जो भूमि में नाइट्रोजन, पोटास, फॉस्फोरस, कैल्सियम तथा मैग्नेशियम तत्वों को बढ़ाता है, जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाए रखने के लिए आवश्यक है|

वर्मी कंपोस्ट तैयार करने की विधि

साधारणत: किसी सुरक्षित, छायादार और नाम स्थानों पर ही कंपोस्ट तैयार किया जाता है| क्योंकि केंचुओं को अत्यधिक सूर्य प्रकाश और पानी से बचाना आवश्यक है| फार्म व घरों के कूड़ा-करवट (मक्का/बाजरा के डंठल, ठूंठ व सूखी पत्तियाँ) एवं खरपतवारों को एकत्रित करके गड्ढे या मिट्टी के बर्तन या सीमेंट के टैंक या प्लास्टिक बैग या लकड़ी के बक्से (गहराई 30 से 50 सेंमी) में परत लगाकर डाल देते हैं| दो – तीन सप्ताह तक उसमें हल्का-हल्का पानी छिड़काव किया जाता है| अब इसमें केंचुए का स्थान (बीज) जो पैकेट के रूप में उपलब्ध होते हैं, छोड़ दिये जाते हैं|

एक मीटर लम्बी, एक मीटर चौड़ी एवं 30 से मी. गहरे बर्त्तनों में (जिसमें खरपतवार है), एक हजार से 1500 वर्म (केंचुआ) पर्याप्त होता है| ये वृद्धि करके इन अवयवों को खाकर मिट्टी के रूप में मल –उर्वरा मिट्टी बनाते हैं, जिसे वर्मी कंपोस्ट कहा जाता है| ये लगभग एक माह के अंदर खाद बना देते हैं, जिसमें अनेक उपयोगी रासायनिक तत्त्व रहते हैं| ऐसे तैयार खाद को खेतों में डालना लाभप्रद है|

तैयार खाद को बर्त्तन से निकालने की विधि

तैयार खाद जो हल्की नयी युक्त भूरभूरी होता है| उसका एक स्थान पर ढेर बना लिया जाता है और दो – तीन घंटो तक छोड़ दिया जाता है| इससे सारे केंचुएँ नीचे की ओर (जमीन) जमा होने लगते हैं| अब ऊपर के खाद को लेकर उसे मोटी चलनी से (दो मिमि. छिद्र) छोटे- छोटे केंचुओं को या स्थान को अलग कर लिया जाता है| इस प्रकार ये छोटे केंचुएँ एवं बड़े केंचुओं (ढेर के नीचे जमा) को पुन: स्थान के रूप में खाद बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है| प्राप्त खाद को खेतों में डाला जाता है या पैकेटों में बेचा जाता है|

लाभ

  1. इससे भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है|
  2. मिट्टी की भौतिक दशा, जैविक पदार्थ तथा लाभदायक जीवाणुओं में वृद्धि एवं सुधार होता है|
  3. भूमि की जल सोखने की क्षमता और पर्याप्त नमी वृद्धि, होता है|
  4. खरपतवारों में कमी, सिंचाई की बचत तथा फसलों में बीमारी/कीड़े कम लगते हैं|
  5. सब्जियों एवं फसलों के उत्पादन में वृद्धि होती है|

सावधानी

(i)  वर्मी-कंपोस्ट से अच्छे परिणाम प्राप्त करने के लिए वर्मी –कंपोस्ट को पौधों में डालने के बाद पत्तों आदि से अवश्य ढक देना चाहिए|

(ii)  वर्मी, कंपोस्ट के साथ रसायन उर्वरक, कीटनाशी, फफूंदनाशी, खरपतवार- नाशी का प्रयोग नहीं करना चाहिए|

स्रोत : हलचल, जेवियर समाज सेवा संस्थान, राँची|

चॉकलेट उद्यम से आत्मनिर्भर बनें किसान
चॉकलेट उद्यम से आत्मनिर्भर बनें किसान

देश में दुग्ध और कोको उत्पादन बढ़ने से, चॉकलेट उद्योग निवेशकों की पहली पसंद बन रहा है। पूरी दुनिया में जहां चॉकलेट इंडस्ट्री में ठहराव आ रहा है, वहीं भारत में 13 प्रतिशत की दर से यह उद्योग तेजी से बढ़ रहा है। ऐसे में देश के दुग्ध और कोको उत्पादक किसान चॉकलेट उद्यम लगाकर अपनी आय बढ़ा सकते हैं। किसानों को इसके लिए सरकार की तरपफ से सुविधाएं भी दी जा रही हैं। केंद्र सरकार द्वारा कृषि क्षेत्रा को उच्च प्राथमिकता देते हुए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से योगदान देकर किसानों की आय में बढ़ोतरी करने तथा युवाओं को रोजगार का अवसर प्रदान करने के लिए, स्टार्ट-अप्स को प्रोत्साहित किया जा रहा है।

राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के अंतर्गत एक घटक के रूप में, नवाचार और कृषि उद्यमिता विकास कार्यक्रम शुरू किया गया है। इसको वित्तीय सहायता प्रदान करके और ऊष्मायन पारिस्थितिकी तंत्र को पोषित करके, नवाचार और कृषि उद्यमिता को बढ़ावा दिया जा रहा। इन स्टार्ट-अप्स में डेयरी क्षेत्रा को कोको की खेती के साथ जोड़कर चॉकलेट उद्योग लगाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। कोको की खेती करने के लिए कोको विकास निदेशालय, भारत सरकार और विभिन्न राज्य सरकारों की तरपफ से राष्ट्रीय कृषि विकास योजना में कोको को शामिल किया गया है।

वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय भारत के ट्रेड प्रमोशन काउंसिल ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार देश में 2 लाख 28 हजार टन चॉकलेट का सालाना उत्पादन हो रहा है। आने वाले वर्षों में देश में 3 लाख ४१ हजार 609 टन चॉकलेट का उत्पादन होने की उम्मीद है।

दुग्ध क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकों के अनुसार बदलती जीवन शैली, खानपान की बदलती आदतें और गिफ्ट में चॉकलेट देने के बढ़ते चलन के कारण भी यह इंडस्ट्री आगे बढ़ रही है। भारत, चॉकलेट का प्रमुख निर्यातक देश भी बन रहा है। भारत से सउदी अरब, यूएइर्, सिंगापुर, नेपाल और हांगकांग में चॉकलेट निर्यात किया जा रहा है। देश में दुग्ध उत्पादन अधिक होने आरै कोको की खेती बढ़ने से चॉकलेट उद्योग को बढ़ने में आसानी हो रही है। देश में एक नगदी फसल के रूप में कोको किसानों की पसंद बनती जा रही है। ऐसे में काजू और कोको विकास निदेशालय, भारत सरकार, एक योजना बनाकर देश में कोको की खेती बढ़ाने के लिए काम कर रहे हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार कोको एक नियार्तोन्मुख फसल है। चॉकलेट में कच्चे माल के रूप में इसका इस्तेमाल होता है। भारत में कोको की खेती केरल, कनार्टक, तमिलनाडु आरै आंध्र प्रदेश में हो रही है। देश में तीन प्रकार की चॉकलेट का उत्पादन हो रहा है, जिसमें व्हाइट, डार्क आरै मिल्क चॉकलेट शामिल हैं। अगर बाजार में बिक्री की हिस्सेदारी के अनुसार देखें तो मिल्क चॉकलेट 75 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ बाजार में प्रथम स्थान पर है। व्हाइट चॉकलेट की 16 प्रतिशत आरै डार्क चॉकलेट की 9 प्रतिशत हिस्सेदारी है। 

कोको की खेती को बढ़ावाकोको (थियोब्राेमा काकाओ एल) एमेजोन मूल की फसल है। यह बीसवीं सदी की शुरूआत में भारत लाई गई थी। काॅफी, चाय आरै रबड़ की तरह कोको को भी देश में बागवानी फसल का दर्जा प्राप्त है। कोको विकास निदेशालय के अनुसार कोको, दक्षिणी अमेरिका की मुख्य फसल है। बहुतायत में इसकी खेती अफ्रीकी भूखंड के उष्णकटिबंधीय इलाके में की जाती है। कोको के एक उष्णकटिबंधीय फसल होने के कारण भारत में इसके विकास की काफी संभावनाएं हैं। देश में इसकी व्यावसायिक खेती 1960 के दशक में शुरू की गई, लेकिन अभी भी देश में कोको के अलग से बागान नहीं हैं। ऐसे में कोको निदेशालय इसके बागान लगाने के लिए भी काम कर रहा है।

आजकल डार्क और शुगर फ्री चॉकलेट की भी मांग तेजी से बढ़ रही है। बाजार में मेडिसिनल और आर्गनिक चॉकलेट की मांग को देखते हुए चॉकलेट उत्पादक इकाइयों ने ऐसेम भी बाजार में उतारना शुरू कर दिए हैं। देश में चॉकलेट का बड़े पमैाने पर उत्पादन होने के बाद भी निर्यात के मामले में अभी भारत शीर्ष पांच देशों में अपनी जगह नहीं बना पाया है। पूरे विश्व में 17.1 प्रतिशत निर्यात के साथ जर्मनी नंबर वन चॉकलेट नियार्तक देश है, वहीं 11 प्रतिशत के साथ बेल्जियम दूसरे, 6.8 प्रतिशत के साथ नीदरलैंड तीसरे, 6.3 प्रतिशत के साथ इटली चौथे और 6.1 प्रतिशत निर्यात के साथ अमेरिका पांचवें स्थान पर है।

ट्रेड प्रमोशन काउंसिल ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2025 में भारत में कोको का उत्पादन दोगुना होने के साथ 30 हजार टन होने की उम्मीद है। ऐसे में देश के चॉकलेट उद्योग को बड़ी मात्रा में कच्चे माल के रूप में कोको मिलेगा और भारत चॉकलेट के प्रमुख निर्यातक देशों में शामिल हो जाएगा।

पिछले वर्ष 78000 हैक्टर क्षेत्रफल से 16050 मीट्रिक टन का कोको उत्पादन हुआ था। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय, भारत सरकार के अंतगर्त आने वाले कृषि और प्रसंस्करित खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) की रिपोर्ट के अनुसार देश ने वर्ष 2016-17 के दौरान 1,089.99 करोड़ रुपये मूल्य के 25700.17 मीट्रिक टन कोको उत्पाद का विश्व को निर्यात किया है। 

स्त्राेत : खेती पत्रिका(आईसीएआर), प्रस्तुति-अश्वनी कुमार निगम। 

निजी उद्यमी गारंटी (पीईजी) स्‍कीम
निजी उद्यमी गारंटी (पीईजी) स्‍कीम

भूमिका

विगत कुछ वर्षों के दौरान न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य में वृद्धि  के साथ बेहतर पहुंच के कारण खरीद बढ़ी है। खाद्यान्‍नों की अधिक खरीद के परिणामस्‍वरुप केन्‍द्रीय पूल स्‍टॉक दिनांक 1.4.2008 की स्‍थिति के अनुसार 196.38 लाख टन से बढ़कर दिनांक 1.6.2012 की स्‍थिति के अनुसार 823.17 लाख टन के उच्‍चतम स्‍तर पर पहुंच गया। अत: खाद्यान्‍नों के लिए भंडारण क्षमता को बढ़ाने की आवश्‍कयता महसूस की गई।

यह विभाग कवर्ड एंड प्‍लिन्‍थ (कैप) भंडारण पर निर्भरता कम करने के लिए कवर्ड गोदामों के रुप में  भंडारण क्षमता को बढ़ाने के लिए निजी उद्यमी गारंटी (पीईजी) स्‍कीम नामक एक स्‍कीम कार्यान्‍वित कर रहा है।

वर्ष 2008 में प्रारंभ की गई निजी उद्यमी गारंटी स्‍कीम के अंतर्गत भारतीय खाद्य निगम द्वारा गारंटी देकर किराए पर लेने के लिए सार्वजनिक-निजी-भागीदारी (पीपीपी) पद्धति के अंतर्गत निजी पार्टियों तथा सार्वजनिक क्षेत्र की विभिन्‍न एजेंसियों के माध्‍यम से गोदामों का निर्माण किया जाता है।

निजी पार्टियों के लिए गारंटी की अवधि 10 वर्ष है, जबकि निजी क्षेत्र की एजेंसियों के लिए यह अवधि 9 वर्ष है। निजी पार्टियों के मामले में दो-बोली प्रणाली के अंतर्गत निर्दिष्‍ट शीर्ष एजेंसियों द्वारा राज्‍यवार निविदाएं आमंत्रित की जाती हैं। तकनीकी बोली स्‍तर पर साईटों का निरीक्षण किया जाता है तथा जो साइटें उपयुक्‍त पाई जाती हैं उन्‍हीं से संबंधित बोलियों पर आगे कार्रवाई की जाती है।  सबसे कम बोली लगाने वाले बोलीकर्ताओं को निविदाएं आबंटित की जाती हैं। गैर-रेलवे साइडिंग गोदामों का निर्माण एक वर्ष में किया जाना अपेक्षित है, जबकि रेलवे साइडिंग वाले गोदामों के निर्माण के लिए 2 वर्ष की निर्माण अवधि की अनुमति दी गई है। इस अवधि को निवेशक के अनुरोध पर एक वर्ष और बढ़ाया जा सकता है। गोदाम का निर्माण कार्य पूरा होने के पश्‍चात भारतीय खाद्य निगम तथा शीर्ष एजेंसी की संयुक्‍त समिति द्वारा अंतिम निरीक्षण किया जाता है तथा पूर्ण रुप से तथा विनिर्दिष्‍टयों के अनुसार तैयार गोदामों का अधिग्रहण गारंटी आधार पर किया जाता है।

उद्देश्‍य

भंडारण स्‍थान की कमी को पूरा करने के उद्देश्‍य से गोदामों के निर्माण के लिए स्‍थानों की पहचान भारतीय खाद्य निगम द्वारा राज्‍य स्‍तरीय समितियों की सिफारिशों के आधार पर की गई थी। उपभोक्‍ता क्षेत्रों के लिए भंडारण अंतर का आकलन सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) तथा अन्‍य कल्‍याणकारी योजनाओं (ओडब्‍ल्‍यूएस) की चार माह की आवश्‍यकताओं के आधार पर किया जाता है, जबकि खरीद वाले राज्‍यों के संबंध में भंडारण अंतर का आकलन खरीद क्षमता को ध्‍यान में रखते हुए विगत तीन वर्षों में उच्‍चतम स्‍टॉक स्‍तर के आधार पर किया गया है।

स्थिति

तदनुसार, लगभग 200 लाख टन क्षमता के सृजन के लिए 20 राज्यों मे विभिन्न स्थान पर योजना बनाई गई थी। इसमे से 180 लाख टन क्षमता 20 लाख टन क्षमता आधुनिक इस्पात साइलो के निर्माण के लिए है ओर शेष 20 लाख टन पारंपरिक गोदामो की लिए है। प्रत्‍येक  साइलो की क्षमता 25000 अथवा 50000 टन होगी।

दिनाक 30.06.2014 की स्‍थिति के अनुसार 153.16 लाख टन की के गोदामो के निर्माण स्‍वीकृत दी गई है और 120.30 लाख टन का निर्माण कार्य पूरा हो चुका है। साइलो  के लिए बोली दस्तावेज ओर मॉडल रियायत करार को अंतिम रूप दिया जा रहा है। वियाबिलिटी गैप फंडिंग ( वी जी एफ)  ओर गैर – वी जी एफ मोड दोनों के लिए निर्माण सार्वजनिक – निजी – भागीदारी  पद्धति से करने की योजना बनाई जा रही है।

विभिन्‍न मॉडलों की स्‍थिति

साइलोज के संबंध में सार्वजनिक एवं निजी भागीदारी के विभिन्‍न मॉडलों की स्‍थिति का ब्‍यौरा नीचे दिया गया है:-

गैर-व्‍यवहार्यता अंतर वित्‍त पोषण (नॉन-वीजीएफ) पद्धति (17.50 लाख टन):  नवम्‍बर, 2013 में आबंटित निविदाओं को पर्याप्‍त प्रतिक्रिया नहीं मिली थी। बोली दस्‍तावेजों में संशोधन किया जा रहा है। शीघ्र ही नई निविदाएं आमंत्रित की जानी हैं।

व्‍यवहार्यता अंतर वित्‍त पोषण (वीजीएफ) पद्धति (योजना आयोग) (1.50 लाख टन): बोली दस्‍तावेजों को अंतिम रुप दिया जा रहा है। भारतीय खाद्य निगम रेलवे साइडिंग वाले भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में से साइटों को शामिल करने की संभावनाएं तलाश रहा है।

व्‍यवहार्यता अंतर वित्‍त पोषण पद्धति (डीईए) (1.00 लाख टन): आर्थिक कार्य विभाग द्वारा बोली दस्‍तावेज तैयार किए जा रहे हैं|

भंडारण गोदामों के निर्माण के लिए योजना स्‍कीम

यह विभाग पूर्वोत्‍तर क्षेत्रों में क्षमता को बढ़ाने के उद्देश्‍य से गोदामों के निर्माण के लिए एक योजना स्‍कीम कार्यान्‍वित कर रहा है। 11वीं पंचवर्षीय योजना के लिए योजना को अंतिम रुप देने के दौरान गोदामों के निर्माण के उद्देश्‍य से स्‍कीम का क्षेत्र हिमाचल प्रदेश, झारखंड, बिहार, उड़ीसा, पश्‍चिम बंगाल, छत्‍तीसगढ़, महाराष्‍ट्र तथा लक्षद्वीप जैसे राज्‍यों तक बढ़ाने का निर्णय लिया गया था।

इसके अलावा, खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग राज्‍य सरकारों से उचित दर दुकानों तक वितरण करने के लिए भारतीय खाद्य निगम के डिपुओं से एकत्रित खाद्यान्‍नों का भंडारण करने के लिए  राज्‍य सरकारों से ब्‍लाक/तहसील स्‍तर पर मध्‍यवर्ती भंडारण क्षमता का निर्माण करने का अनुरोध कर रहा है। यह लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए आपूर्ति श्रृंखला संभार तंत्र में सुधार करने के लिए आवश्‍यक है। चूंकि मध्‍यवर्ती गोदामों का निर्माण राज्‍य सरकारों की जिम्‍मेवारी है, अत: खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग पूर्वोत्‍तर राज्‍य सरकारों तथा जम्‍मू और कश्‍मीर सरकार को उनकी कठिन भौगोलिक स्‍थितियों को ध्‍यान में रखते हुए योजना निधि उपलब्‍ध करा रहा है।

इस योजना स्‍कीम के अंतर्गत भूमि के अधिग्रहण तथा गोदामों के निर्माण तथा संबंधित आधारभूत संरचनाओं जैसे रेलवे साइडिंग, विद्युतीकरण, तौल कांटा स्‍थापित करने आदि के लिए भारतीय खाद्य निगम को इक्‍विटी के रुप में निधियां जारी की जाती हैं। पूर्वोत्‍तर क्षेत्र की राज्‍य सरकारों तथा जम्‍मू और कश्‍मीर राज्‍य सरकार को मध्‍यवर्ती गोदामों के निर्माण के लिए अनुदान सहायता के रुप में निधियां जारी की जाती हैं।

12वीं पंचवर्षीय योजना के संबंध में योजना परिव्‍यय

12वीं पंचवर्षीय योजना के संबंध में योजना परिव्‍यय निम्‍नानुसार है:-

क्रम संख्‍या शीर्ष अनुमानित लागत (करोड़ रु0) 11वीं योजना काव्‍यय न किया गया शेष(करोड़ रु0) 12वीं योजना में परिव्‍यय(करोड़ रु0)
1 भारतीय खाद्य निगम द्वारा पूर्वोत्‍तर में 37 स्‍थानों पर गोदामों का निर्माण (2,92,730 टन) 509.76 51.20 458.56
2 भारतीय खाद्य निगम द्वारा 4 अन्‍य राज्‍यों में 9 स्‍थानों पर गोदामों का निर्माण (76,220 टन) 72.14 16.06 56.08
3 पूर्वोत्‍तर राज्‍यों को 74 स्‍थानों पर तात्‍कालिक भंडारण के लिए अनुदान सहायता 14.36 0.00 14.36
4 जम्‍मू और कश्‍मीर को एक स्‍थान पर  तात्‍कालिक भंडारण के लिए अनुदान सहायता। 1.00 0.00 1.00
5 जोड़ 597.26 67.26 530.00

उपलब्‍धियां

वर्ष 2012-13 तथा 2013-14 के दौरान भारतीय खाद्य निगम की भौतिक एवं वित्‍तीय उपलब्‍धियां निम्‍नानुसार हैं:-

वर्ष पूर्वोत्‍तर क्षेत्र अन्‍य राज्‍य जोड़(पूर्वोत्‍तर+अन्‍य राज्‍य)
भौतिक(टन में) वित्‍तीय(करोड़ रुपए में) भौतिक(टन में) वित्‍तीय(करोड़ रुपए में) भौतिक(टन में) वित्‍तीय(करोड़ रुपए में)
2012-13 2,910 27.72 1,160 2.64 4,070 30.36
2013-14 2,500 30.94 20,000 11.02 22,500 41.96
जोड़ 5,410 58.66 21,160 13.66 26,570 72.32

पूर्वोत्‍तर राज्‍यों तथा जम्‍मू और कश्‍मीर मे अनुदान सहायता का उपयोग करते हुए मध्‍यवर्ती भंडारण गोदामों के निर्माण के लिए 78,055 टन क्षमता की कुल 75 परियोजनाएं स्‍वीकृत की गई थी। दिनांक 30.06.2014 की स्‍थिति के अनुसार 33,220 टन क्षमता का कार्य पूरा कर लिया गया है।

पूर्वोत्‍तर राज्‍यों, सिक्‍किम तथा जम्‍मू-कश्‍मीर की राज्‍य सरकारों को अनुदान सहायता

खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग मध्‍यवर्ती भंडारण गोदामों के निर्माण के लिए पूर्वोत्‍तर राज्‍यों की राज्‍य सरकारों को योजना स्‍कीम के अंतर्गत अनुदान सहातया के रुप में भी निधियां जारी करता है।

दिनांक 1 अक्‍तूबर, 2014 की स्‍थिति के अनुसार जारी निधियों तथा क्षमता निर्माण की स्‍थिति का ब्‍यौरा नीचे दिया गया है:-

दिनांक 1 अक्‍तूबर, 2014 के अनुसार

क्र. सं. राज्‍य का नाम परियोजनाओं की संख्‍या निर्माण की जाने वाली कुल क्षमता (टन में) अनुमानित लागत(करोड़ रु0 में) पहले से जारी निधियां(करोड़ रु0 में) उपयोगिता प्रमाणपत्र प्राप्‍त(करोड़ रु0 में) निर्माण की गई क्षमता (टन में)
1 जम्‍मू और कश्‍मीर 1 6160 3.41 3.41 3.41 6160
2 असम 1 4000 3.52 3.43 1.69
3 मिजोरम 22 17500 14.94 13.30 11.30 8000
4 मेघालय 2 4500 2.07 1.74 1.74 4500
5 सिक्‍किम 1 375 1.15 1.15 0.60
6 त्रिपुरा 31 34000 28.11 17.60 16.94 12000
7 अरुणाचल प्रदेश 11 7680 7.60 6.49 4.71 2560
8 नगालैंड 06 3840 10.25 2.00
जोड़ 75 78055 71.05 49.12 40.39 33220

स्रोत: खाद्य व सार्वजनिक वितरण विभाग।

फार्महब पर उपलब्ध जानकारी लोगों द्वारा प्रदान की जाती है और विभिन्न स्रोतों से संकलित की जाती है। हम इस जानकारी की गारंटी या जिम्मेदारी नहीं लेते हैं।