भूमिका
मधुमक्खियां अनेक उत्पाद जैसे शहद, मधुमक्खी का मोम, पराग, प्रापलिस, रॉयल जैली और विष उपलब्ध कराती हैं। छत्तों के विभिन्न उत्पादों के उत्पादन के लिए प्रौद्योगिकियां अब भारत में उपलब्ध हैं, तथापि इन्हें किसानों के खेतों में मानकीकृत करने की आवश्यकता है। इन उत्पादों का कार्यान्वयन तथा वाणिज्यीकरण आवश्यक है, ताकि हरियाणा राज्य में मधुमक्खी पालकों की आमदनी बढ़ सके।
शहद
शहद एक जैविक पदार्थ है तथा इसका भोजन तथा औषधियों के रूप में उपयोग होता है, अतः इसकी गुणवत्ता व साज-संभाल पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। शहद में मौजूद नमी अंश उसकी गुणवत्ता के बारे में निर्णय लेने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जिस शहद में 20 प्रतिशत से अधिक नमी होती है उसे पतला माना जाता है। शहद में नमी का अंश उसकी जलावशोषी प्रकृति के कारण बढ़ जाता है जिसके अंतर्गत शहद अपने आस-पास के वातावरण की नमी को सोख लेता है। यदि शहद में नमी का अंश 20 प्रतिशत से अधिक हो तो किण्वन होने और शहद के दाने बन जाने के कारण इसके खराब होने की अधिक संभावना रहती है। अनियंत्रित दशाओं जैसे प्रतिकूल मौसम संबंधी कारकों के अंतर्गत शहद के संकलन, भंडारण तथा साज-संभाल की वर्तमान विधि को ध्यान में रखते हुए शहद के ऐसे प्रसंस्करण की आवश्यकता है जिससे उसमें नमी का अंश कम रहे। इस दृष्टि से शहद के बहुमूल्य प्राकृतिक गुणों की सुरक्षा के लिए उसे पैक बंद करने पर अत्यधिक ध्यान देने की जरूरत है।
इसके अलावा शहद में पराग, धूल और हवा के बुलबुले होते हैं जिससे उसमें दाने पड़ जाते हैं (केलासीकरण होता है)। दाना पड़ने की इस क्रिया को शहद को 450 से. तक गर्म करके रोका जा सकता है क्योंकि इससे शहद में मौजूद रवे या दाने घुल जाते हैं। छानने से शहद से पराग, बाहरी अवांछित कण और मोम भी हट जाते हैं। किण्वन से बचने व यीस्ट को नष्ट करने के लिए शहद को क्रमशः 20 मिनट तक 650 से. पर, 10 मिनट तक 650 से. पर व 2.5 मिनट तक 700 से. पर गर्म किया जाना चाहिए। उचित तापमान नियंत्रण तथा शहद को गर्म करने का समय उसकी प्रसंस्करण क्रिया का सबसे महत्वपूर्ण कारक हैं। ज्यादा गर्म करने से शहद में एचएमएफ (हाइड्रोक्सिल- मेथाइलफरफ्यूरॉल) की मात्रा बढ़ जाती है जो वांछित नहीं है। उच्च तापमान से शहद के रंग व स्वाद भी प्रभावित होते हैं। शहद को पैक बंद करने के पूर्व ठंडा कर लिया जाता है, ताकि यह बिना किसी मिलावट के दीर्घावधि तक टिका रहे और उसमें दाने भी न पड़े। खाद्य श्रेणी के शहद को बोतल में बंद करके बिक्री के लिए उसे कोई ब्राण्ड नाम दिया जाना चाहिए। भंडारण की स्थितियां शहद में एचएमएफ के स्तर तथा उसके स्वाद में मुख्य भूमिका निभाती हैं। यदि शहद को उच्च तापमान (300 से. से अधिक) पर भंडारित किया जाता है तो उसमें एचएमएफ का स्तर 3-5 महीनों में ही 40 मि.ग्रा./कि.ग्रा. से अधिक हो जाता है। यह शहद अंतरराष्ट्रीय बाजार में स्वीकार नहीं किया जाता है, अतः इसे बिक्री से पहले उचित रूप में प्रसंस्कृत किया जाना चाहिए।
शहद का प्रसंस्करण
हरियाणा में मध्यम श्रेणी के चार प्रसंस्करण संयंत्र मुरथल (1), अम्बाला (1) और यमुनानगर (2) में व चार छोटे पैमाने के शहद प्रसंस्करण संयंत्र करनाल (1), सोनीपत (1), हिसार(1) तथा रोहतक (1) में हैं। हरियाणा कृषि उद्योग निगम (एचएआईसी) लिमिटेड एक पंजीकृत सोसायटी है जिसका अनुसंधान एवं विकास अथवा आरडी केन्द्र मुरथल, सोनीपत में है। इस केन्द्र में प्रतिदिन एक मीट्रिक टन शहद के प्रसंस्करण की क्षमता है। इसने शहद की बिक्री के लिए हैफेड (हरियाणा सरकार फेडरेशन) के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं जो इस केन्द्र द्वारा खरीदे गए व प्रसंस्कृत शहद को हरियाणा मधु’ के ब्राण्ड नाम से बाजार में बेचेगी। यह केन्द्र किसानों के शहद को भी 5/रु. प्रति कि.ग्रा. की दर से प्रसंस्कृत करता है लेकिन किसानों की प्रतिक्रिया बहुत उत्साहजनक नहीं है। मधुमक्खी पालक श्रेष्ठ गुणवत्ता वाला शहद उत्पन्न करते हैं लेकिन वे केवल कच्चा शहद ही बेचते हैं तथा अपने शहद को प्रसंस्कृत कराने के लिए आगे नहीं आ रहे हैं।
राज्य सरकार को अनुदानित दरों पर किसानों के शहद को प्रसंस्कृत करने की संभावना तलाश करनी चाहिए तथा राज्य में कार्य न करने वाले प्रसंस्करण संयंत्रों को पुनः उपयोग में लाने की दिशा में कदम उठाने चाहिए। इसके अलावा शहद प्रसंस्करण संबंधी नीति बनाए जाने की जरूरत है, तथा हरियाणा में नए प्रसंस्करण संयंत्र स्थापित किए जाने चाहिए।
शहद का परीक्षण, गुणवत्ता नियंत्रण, मानकीकरण तथा प्रमाणीकरण
सदियों से शहद का उपयोग प्राकृतिक मिठास एजेंट के रूप में किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त औषधियों, सौंदर्य प्रसाधनों तथा कॉनफेक्सनरी उद्योग में भी इसका व्यापक उपयोग होता है। उच्च पोषक तथा उच्च चिकित्सीय गुणों के कारण शहद की सदैव अधिक मांग बनी रहती है। शहद को अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचने के लिए उसका गुणवत्ता नियंत्रण व मानकीकरण बहुत जरूरी है। यूरोपीय यूनियन (ईयू) तथा कुछ अन्य देशों में निर्यात के लिए नाशकजीवों और कीटनाशी अपशिष्टों, आविषालु धातुओं के अपशिष्टों तथा एंटीबायोटिक्स अपशिष्टों के स्तर पर नियंत्रण रखना अति आवश्यक है।
एक सक्षम निर्यातक बनने के लिए भारतीय निर्यात प्राधिकारियों ने शहद की गुणवत्ता की निगरानी शुरू की है। गुणवत्ता संबंधी भौतिक–रासायनिक प्राचलों के अतिरिक्त शहद में आविषालु धातुओं, नाशकजीवनाशियों और एंटीबायोटिक्स के अपशिष्टों की उपस्थिति पर भी अधिक जोर दिया जा रहा है। एक बार जब शहद की गुणवत्ता स्थापित हो जाती है तो यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि उपभोक्ताओं को केवल श्रेष्ठ गुणवत्ता वाला शहद ही बेचा जाए। इसे ध्यान में रखते हुए हरियाणा में एक उच्च स्तर की आधुनिक शहद परीक्षण प्रयोगशाला स्थापित करने की जरूरत है।
शहद का भंडारण और बोतलबंदी
यदि शहद साफ हो और उसे किसी वायुरुद्ध पात्र में सीलबंद किया जाए तो लंबे समय तक भंडारित किया जा सकता है लेकिन यदि उसने जल सोख लिया हो तो वह जल्दी खराब होता है व किण्वित हो जाता है। शहद तैयार करने में यह बहुत महत्वपूर्ण चरण है। जरूरी है कि शहद प्रसंस्करण के सभी उपकरण तथा उसके भंडारण में प्रयुक्त होने वाली बोतलें पूरी तरह सूखी हों। भंडारण के पूर्व शहद को मलमल के कपड़े से छाना जाता है ताकि उसे मोम के अंश या कचरे को हटाया जा सके। यह बहुत आवश्यक है कि यह क्रिया स्वच्छतापूर्वक की जाए तथा शहद को वायु के सम्पर्क में न लाया जाए क्योंकि ऐसा होने पर उसमें नमी आ जाएगी और वह जल्दी खराब हो जाएगा। शहद को वायुरुद्ध, रंजनहीन पात्रों में भंडारित किया जाना चाहिए, ताकि उसमें नमी न आए तथा परिणामस्वरूप किण्वन न हो। प्रसंस्करण के पश्चात शहद को चौड़ी मुंह वाली कांच की बोतलों में रखकर बेचा जाना चाहिए।
शहद का लेबलीकरण/चीनीकरण तथा पैकेजिंग
शहद की बोतलों पर लेबल लगाना चाहिए जिसमें शहद के स्रोत (उदाहरण के लिए सूरजमुखी, मिश्रित पुष्पों, सरसों के शहद), जहां उत्पन्न किया गया है, उस राज्य व जिले का नाम, पात्र में मौजूद शहद का भार या मात्रा तथा मधुमक्खी पालक का नाम व पता दर्ज होना चाहिए। प्रत्येक पात्र पर ग्रेड निर्धारक चिहन मजबूती से लगाया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त पैकेजिंग के पूर्व पैकर का नाम, शहद की खेप संख्या, पैकिंग की तिथि व स्थान, निवल भार तथा अंतिम उपयोग की तिथि भी इंगित की जानी चाहिए।
शहद के उत्पादों का मूल्यवर्धन
मधुमक्खी पालन उद्योगों के प्राथमिक मूल्यवर्धक उत्पाद शहद, मधुमक्खी का मोम, पराग, प्रापलिस, रॉयल जैली, विष तथा रानी मधुमक्खी, आदि हैं। आजकल शहद के अनेक उपयोग हैं तथा इसे खाद्य व खाद्य घटकों के रूप में द्वितीयक उत्पादों के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। आहार के रूप में शहद का उपयोग केक, बिस्कुटों, ब्रेड, कांफेक्शनरी, कैंडी, जैम, स्प्रिट्स व दुग्धोत्पादों में किया जा सकता है। शहद के किण्वन से प्राप्त होने वाले उत्पाद शहद का सिरका, शहद की बीयर व एल्कोहॉली पेय हैं। शहद का उपयोग तम्बाकू उद्योग में तम्बाकू की गंध को सुधारने व उसे बनाए रखने के लिए किया जाता है। इसके अतिरिक्त शहद को अनेक सौंदर्य प्रसाधन उत्पादों जैसे मलहम, ऑइंटमेंट, क्रीम, शैम्पो, साबुन, टूथपेस्ट, डियोडरेंट, चेहरे की मास्क, मेक-अप, लिपस्टिक, इत्र आदि के रूप में भी किया जाता है।
सरकारी संगठनों नामतः पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू), लुधियाना, केन्द्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान (सीएफटीआरआई), मैसूर, केन्द्रीय मधुमक्खी अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान (सीबीआरटीआई), पुणे; व निजी उद्योग (विशेष रूप से मैसर्स काश्मीर एपीरीज़ एक्सपोर्ट्स), मधुमक्खी पालकों व मधुमक्खी उद्योग को अधिक लाभ कमाने में पहले से ही सहायता पहुंचाने लगे हैं। काश्मीर एपीरीज़ एक्सपोर्ट व लिटिल बी इम्पेक्स, दोराहा, लुधियाना पादप मूल के विभिन्न प्रकार के शहद उत्पन्न कर रहे हैं जैसे धनिया शहद, लीची शहद, सूरजमुखी शहद, बहुपुष्पीय शहद, शिवालिक शहद, जामुन शहद तथा जैविक/वन शहद आदि । इन फर्मों के कुछ मूल्यवर्धित उत्पाद हैं – हनी ‘एन’ लैमन, हनी ‘एन’ जींजर, हनी ‘एन’ सिनामोन, हनी ‘एन’ तुलसी आदि। अनेक प्रकार के शहद व फल स्प्रिट, हनी ‘एन’ नट्स, हनी ‘एन’ ड्राइफ्रटस, शहद आधारित चाय; शहद आधारित सॉस/सीरप/शेक भी उत्पन्न करके बाजार में बेचे जा रहे हैं।
हमारे देश में शहद की खपत अभी कम है। इसे भोग विलास की वस्तु के रूप में बढ़ावा दिया जा रहा है और मुख्यतः इसका उपयोग औषधियों में हो रहा है। वर्तमान में शहद के कुछ मूल्यवर्धित उत्पाद विकसित किए गए हैं तथा ये भारतीय बाजारों में उपलब्ध हैं। । इस उद्योग का अभी तक इसकी क्षमता के अनुसार उपयोग नहीं हुआ है जबकि इसकी अपार संभावना है। वाणिज्यिक मधुमक्खी पालक मूल्यवर्धित उत्पाद संबंधी गतिविधियों में सहायता प्रदान कर सकते हैं, ताकि जहां एक ओर रोजगार सृजन में वृद्धि हो वहीं दूसरी ओर मधुमक्खी पालन में लगे कर्मियों को शहद का लाभदायक मूल्य मिलना सुनिश्चित हो सके। इस संबंध में राज्य में शहद के अनेक मूल्यवर्धित उत्पाद तैयार करने के लिए बुनियादी ढांचे संबंधी सुविधाएं सृजित करने की आवश्यकता है।
मधुमक्खी का मोम
मधुमक्खी मोम केवल मधुमक्खियां ही सृजित करती हैं। यह मोम 14-18 दिन आयु की कमेरी मधुमक्खियों द्वारा बनाया जाता है जिनके उदर के प्रतिपृष्ठ छोर पर 4 जोड़ी ग्रंथियां होती हैं। इसका उपयोग मुख्यतः छत्ते के आधार या नीव की चादर बनाने के लिए किया जाता है। इसके अतिरिक्त यह छत्ता बनाने के लिए प्राथमिक निर्माण सामग्री है। मोम का उपयोग पके हुए शहद पर ढक्कन लगाने के लिए तब किया जाता है जब इसे कुछ प्रापलिस के साथ मिलाया जाता है। इससे मधुमक्खी के झुण्ड को संक्रमण या रोग भी नहीं होता है। मधुमक्खियों का ताजा मोम सफेद होता है। लेकिन छत्ते में पराग के साथ उपयोग किए जाने पर यह गहरे रंग का हो जाता है तथा इसमें डिम्भकों का कचरा भी अनिवार्य रूप से मिल जाता है। अनुपचारित मधुमक्खी का मोम पीले रंग की विभिन्न आभाओं वाला हो जाता है। एक मधुमक्खी कालोनी से एक वर्ष में लगभग 800 ग्राम मधुमक्खी मोम इकट्ठा किया जा सकता है। राज्य में 2.5 लाख मधुमक्खी क्लोनियाँ उपलब्ध हैं। इसे ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि यहां प्रति वर्ष लगभग 180 टन मधुमक्खी का मोम (संकलन का अधिक से अधिक 90 प्रतिशत) एकत्र किया जा सकता है। चूंकि हरियाणा में लगभग 4.0 लाख मधुमक्खी क्लोनियाँ हैं, अतः यहां प्रति वर्ष लगभग 288 टन मधुमक्खी मोम एकत्रित किए जाने की क्षमता है।
मधुमक्खी के मोम का उपयोग मोमबत्तियां बनाने, औषधीय तथा सौंदर्य प्रसाधन उद्योग में किया जाता है।
पराग
परागकण नर उत्पादन इकाइयां हैं जो पुष्पों के परागकोष में उत्पन्न होती हैं। मधुमक्खियों द्वारा एकत्र किए गए पराग में सामान्यतः पुष्प रस होता है जिससे पराग परस्पर चिपके रहते हैं और मधुमक्खियों की पिछली टांगों से भी चिपक जाते हैं। परिणामस्वरूप मधुमक्खी कालोनी से एकत्र की गई पराग गुटिकाएं सामान्यतः स्वाद में मीठी होती हैं। तथापि, कुछ प्रकार के पराग तेलों से समृद्ध होते हैं तथा पुष्प रस या शहद के बिना ही चिपक जाते हैं। उड़ती हुई मधुमक्खी अपने एक भ्रमण के दौरान पुष्पों की एक से अधिक प्रजातियों से यदा-कदा ही पराग और पुष्प रस दोनों एकत्र करती है। इसके परिणामस्वरूप पराग गुटिकाओं का विशिष्ट रंग होता है जो अक्सर पीला होता है लेकिन यह लाल, बैंगनी, हरे, नारंगी अथवा किसी अन्य प्रकार के रंग का भी हो सकता है। मधुमक्खी के छत्तों में भंडारित आंशिक रूप से किण्वित पराग मिश्रण को ‘बी ब्रेड’ भी कहा जाता है तथा इसकी खेत से एकत्र किए गए पराग की गुटिकाओं की तुलना में भिन्न संरचना व पोषणिक गुण होते हैं। यह युवा कमेरी मधुमक्खियों द्वारा भोजन के रूप में खाया जाता है और इससे रॉयल जैली उत्पन्न होती है। एक औसत आकार की एपिस मेलिफेरा मधुमक्खी कालोनी को अपनी सामान्य जनसंख्या वृद्धि तथा सामान्य कार्य प्रणाली के लिए प्रति वर्ष लगभग 50 कि.ग्रा. या इससे अधिक पराग की आवश्यकता होती है।
यह पराग छत्ते के प्रवेश द्वार पर पराग फंदा लगाकर आसानी से एकत्र किया जा सकता है। पराग फंदा एकल या दोहरे ग्रिड की युक्ति है जिससे मधुमक्खियां छत्ते में प्रवेश करते समय डगमगा जाती हैं और इस प्रकार उनकी पिछली टांगों से चिपकी पराग गुटिकाएं ट्रे में गिर जाती हैं। एक श्रेष्ठ पराग प्रवाह मौसम के दौरान एपिस मेलीफेरा के एक छत्ते से कुछ कि.ग्रा. पराग गुटिकाएं प्राप्त करना संभव है। इस पराग फंदे का उपयोग सक्रिय पराग एकत्रीकरण अवधि के दौरान किया जाना चाहिए। पराग फंदे का उपयोग एक सप्ताह में दो दिन से अधिक नहीं किया जाना चाहिए (अधिक से अधिक 25 प्रतिशत संकलन के लिए)। वर्तमान में हरियाणा में उपलब्ध मधुमक्खी क्लोनियों से लगभग 250 टन पराग एकत्र करना संभव है तथा इस राज्य में प्रति वर्ष लगभग 400 टन पराग उत्पन्न करने की क्षमता है।
पराग अथवा परागोत्पादों को सामान्यतः मनुष्यों के लिए लाभदायक उपयोग के रूप में दर्शाया गया है। इसके एंटीबायोटिक प्रभाव हैं जिससे भूख में सुधार होता है और शरीर का वजन भी बढ़ता है।
प्रापलिस
प्रापलिस एक चिपचिपा हल्के भूरे रंग का गोंद है जो मधुमक्खियां वृक्षों और कलियों से एकत्र करती हैं। मधुमक्खी कालोनी में प्रापलिस का उपयोग दरारों और खांचों को भरने तथा बाहरी अवांछित पदार्थों/परभक्षियों से बचने के लिए किया जाता है। चूंकि प्रापलिस विभिन्न प्रकार के वृक्षों तथा पौधों की अन्य प्रजातियों से एकत्र किया जाता है इसलिए ये गुणवत्ता तथा मात्रात्मक संघटन के मामले में एक दूसरे से प्राकृतिक रूप से भिन्न होते हैं।
प्रापलिस का संकलन छोटे छिद्रों वाली विशेष प्लेटों या छन्नों को रखकर किया जाता है। जिन्हें आंतरिक आवरण पर रखकर इस्तेमाल किया जाता है। इससे छत्ते की दीवारों में दरारें आ जाती हैं। मधुमक्खियां छेदों को बंद करने की कोशिश करती हैं और इस प्रकार उन्हें प्रापलिस से भर देती हैं।
प्रापलिस का उपयोग छत्तों की सभी भीतरी सतहों में वार्निश के लिए किया जाता है और इससे न केवल छत्तों तथा फ्रेमों के लिए लकड़ी का काम किया जाता है बल्कि वास्तविक मोमिया कोष्ठ भी तैयार किए जाते हैं। मधुमक्खियों के मोम तथा प्रापलिस का मिश्रण केवल मधुमक्खियों के मोम की तुलना में अधिक मजबूत होता है और मधुमक्खियां इस मिश्रण का उपयोग छत्ते के जुडाव वाले स्थान को मजबूत बनाने के लिए करती हैं। एक वर्ष में मधुमक्खी की एक कालोनी से लगभग 300 ग्राम प्रापलिस एकत्र करना संभव है। इस प्रकार, वर्तमान में हम लगभग 67.5 टन प्रापलिस एकत्र कर सकते हैं (संकलन का अधिक से अधिक 90 प्रतिशत) और हरियाणा राज्य में प्रति वर्ष लगभग 108 टन प्रापलिस एकत्र करने की क्षमता है।
प्रापलिस में विभिन्न विषाणुओं, जीवाणुओं और फफूदियों के विरुद्ध प्रतिसूक्ष्मजैविक गुण होते हैं। ऐसी रिपोर्टें हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान प्रापलिस घायल सैनिकों के घाव भरने में बहुत प्रभावी सिद्ध हुआ था। वर्तमान में प्रापलिस ओंठों पर लगाए जाने वाले बाम, त्वचा की क्रीमों, टिंचर, टूथपेस्ट आदि के लिए कैप्सूल के रूप में उपलब्ध है।
रॉयल जैली
रॉयल जैली युवा नर्स मक्खियों का दूधिया सफेद रंग का स्राव है। इसका उपयोग रानी मधुमक्खी जीवन पर्यन्त करती है तथा इसे कमेरी तथा नर मक्खियों के डिम्बकों को आरंभिक डिम्बक जीवन काल के दौरान ही दिया जाता है। मधुमक्खियों में इसका संश्लेषण हाइपोफेरिंजियल तथा मेंडिबुलर ग्रंथियों में होता है। इसे भंडारित नहीं किया जाता है तथा रानी मधुमक्खी और डिम्बकों को स्रवित होते ही सीधे खिला/पिला दिया जाता है।
रॉयल जैली के मुख्य घटक प्रोटीनों, शर्कराओं, वसाओं तथा खनिज लवणों के जलीय क्षार में घुले पायस हैं। ताजी रॉयल जैली में दो तिहाई पानी होता है। तथापि, शुष्क भार के अनुसार प्रोटीन व शर्कराओं का अंश अपेक्षाकृत काफी अधिक होता है।
छोटे पैमाने पर रॉयल जैली उत्पन्न करने के लिए मधुमक्खी पालक कालोनी से रानी मधुमक्खी को हटाकर आपातकालीन रानी मक्खी की कोशिकाओं से रॉयल जैली निकाल सकता है। वाणिज्यिक पैमाने पर रॉयल जैली का उत्पादन बड़े पैमाने पर रानी मक्खी के पालन की मानक तकनीकों में सुधार करके किया जा सकता है। एक वर्ष में एक कालोनी से लगभग 823 ग्राम रॉयल जैली एकत्र करना संभव है। इस प्रकार, वर्तमान में हम लगभग 10.28 टन रॉयल जैली एकत्र कर सकते हैं (संकलन का अधिक से अधिक 5 प्रतिशत) तथा हरियाणा राज्य में प्रति वर्ष लगभग 16.46 टन रॉयल जैली एकत्र करने की क्षमता है।
रॉयल जैली अत्यधिक पोषणिक है तथा इससे शक्ति व ऊर्जा के साथ-साथ उर्वरता में भी वृद्धि होती है।
मधुमक्खी का विष
मधुमक्खी विष मधुमक्खियों का जहर है। इस विष के सक्रिय अंश में प्रोटीनों का जटिल मिश्रण होता है जिससे स्थानीय प्रदाह उत्पन्न होता है और यह प्रति स्कंदक या रक्त का थक्का न जमने देने वाले पदार्थ के रूप में कार्य करता है। मधुमक्खी विष कमेरी मक्खियों के उदर में अम्लीय तथा क्षारीय स्रावों के मिश्रण से उत्पन्न होता है। मधुमक्खी विष प्रकृति में अम्लीय होता ह।
मधुमक्खियां अपने विष का उपयोग अपने शत्रुओं, विशेषकर परभक्षियों के विरुद्ध अपनी रक्षा के लिए करती हैं। नई जन्मी मधुमक्खी डंक मारने में अक्षम होती है क्योंकि इसका डंक किसी के शरीर में प्रवेश करने में अक्षम होता है। इसके अतिरिक्त इनके विष थैले में बहुत कम मात्रा में विष भंडारित होता है। दो सप्ताह आयु की मधुमक्खी के विष थैले में सबसे अधिक विष होता है।
पिछले वर्ष के 50वें दशक से मधुमक्खियों को डंक मारने हेतु प्रेरित करने के लिए बिजली के झटके देने की विधि का उपयोग किया जा रहा है। संग्राहक फ्रेम को सामान्यतः छत्ते के प्रवेश द्वार पर रख दिया जाता है तथा बिजली के झटके देने के लिए एक युक्ति जोड़ दी जाती है। संग्राहक फ्रेम लकड़ी या प्लास्टिक का बना होता है और इसमें तारों का एक घेरा होता है। इन तारों के नीचे कांच की एक शीट होती है जिसे प्लास्टिक या रबड़ की सामग्री से ढक दिया जाता है ताकि विष प्रदूषित न हो। संकलन के दौरान मधुमक्खियां तार की ग्रिड के सम्पर्क में आती हैं और उन्हें बिजली का हल्का झटका लगता है। वे संग्राहक शीट की सतह पर डंक मारती हैं क्योंकि वे उसे खतरे का स्रोत समझती हैं। डंक से निकला विष कांच तथा सुरक्षात्मक सामग्री के बीच जमा हो जाता है जहां इसे सुखाकर बाद में खुरच दिया जाता है। एक मधुमक्खी कालोनी से लगभग 50 मि.ग्रा. मधुमक्खी विष एकत्र करना संभव है। इस प्रकार हम हरियाणा में प्रति वर्ष लगभग 11.25 कि.ग्रा. मधुमक्खी विष एकत्र कर सकते हैं, हरियाणा में प्रति वर्ष लगभग 18.00कि.ग्रा.मधुमक्खी विष एकत्र करने की क्षमता हैI मधुमक्खी विष का उपयोग गठिया तथा अस्थि शोथ के साथ-साथ जोड़ों के दर्द को ठीक करने के लिए भी किया जाता है I